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मराठी पुस्तक '1 जनवरी 1818 कोरेगांव भीमा लड़ाई की वास्तविक्ता' के हिंदी और अंग्रेजी संस्कार का दिल्ली में हुआ विमोचन
नई दिल्ली, 26 अप्रैल (हि.स.)। देश में वर्तमान समय में दलित हित के नाम पर कुछ तत्व समाज में वैमनस्य फैलाने का कार्य कर रहे हैं। ऐसे तत्वों के एजेंडे को समय रहते पहचानना आवश्यक है। भाजपा राष्ट्रीय प्रवक्ता, लेखक और कानून के विशेषज्ञ गुरुप्रकाश पासवान ने शनिवार को यह बातें पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में कही।
लेखक एवं वकील रोहन बाबा साहेब जमादार (मालवदकर) की मराठी पुस्तक ‘1 जनवरी 1818 कोरेगांव भीमा लड़ाई की वास्तविकता’ के हिंदी और अंग्रेजी संस्कार का शनिवार यहां कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में भाजपा राष्ट्रीय प्रवक्ता गुरु प्रकाश पासवान और प्रोफेसर उमेश कदम ने विमोचन किया गया। पुस्तक को 'भूमिका प्रकाशन' द्वारा प्रकाशित किया गया।
इस मौके पर गुरुप्रकाश पासवान ने कहा कि प्रमाणों के साथ बोलना और लिखना अत्यंत महत्वपूर्ण है। लेखक मालवदकर ने अपनी पुस्तक में उपलब्ध प्रमाणों का विस्तृत उल्लेख किया है। वर्तमान सोशल मीडिया के युग में तथ्यों और संदर्भों का विशेष महत्व है। इस पुस्तक के माध्यम से नए विचारों का उदय हुआ है, जिस पर विमर्श और बहस होनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि लेखक रोहन मालवदकर 'जयस्तंभ' के वंशज हैं, इसलिए उनका इस विषय पर लेखन और भी महत्वपूर्ण बनता है। वर्तमान में दलितों के हित के नाम पर समाज में वैमनस्य फैलाने के लिए एक 'इंडस्ट्री' सक्रिय है। लेकिन किसने इन्हें इस कार्य का ठेका दिया है, यह सवाल भी उठाना चाहिए।
गुरुप्रकाश पासवान ने कहा कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों का भी कई बार तोड़-मरोड़ कर इस्तेमाल किया जाता है। उनके लिखित विचारों का कुछ विशिष्ट समूह अपने एजेंडे के अनुसार प्रयोग करता है। कई बार 'ब्रेकिंग इंडिया' एजेंडा वाले तत्व दलितों को हिंदुओं से अलग दिखाने का प्रयास करते हैं और इसी से 'जय भीम जय मीम' जैसे नारे गढ़े जाते हैं। इसलिए ऐसे ठेकेदारों को समय रहते पहचानना जरूरी है।
प्रोफेसर डॉ. उमेश कदम ने कहा कि भारत का इतिहास उपनिवेशवादी दृष्टिकोण से लिखने का पाप अंग्रेजों ने किया। जानबूझकर 'हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया' और 'हिस्ट्री ऑफ मुगल इंडिया' जैसे इतिहास लिखे गए, लेकिन 'हिस्ट्री ऑफ मराठा इंडिया' नहीं लिखी गई। इसके पीछे गहरी उपनिवेशवादी साजिश थी, जिससे भारत को अशांत करने का प्रयास किया गया।
उन्होंने कहा कि वर्ष 1965 के बाद देश में अलगाववादी आंदोलनों को बल मिला और इसके मूल में 1965 के बाद पढ़ाया गया इतिहास भी एक कारण हो सकता है। इसलिए अब हर स्तर पर उपनिवेशवादी विचारों को खत्म करना जरूरी है। इसके लिए समाज को छत्रपति शिवाजी महाराज और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर से प्रेरणा लेनी चाहिए।
पुस्तक के लेखक व वकील रोहन जमादार मालवदकर ने कहा कि 1818 की भीमा-कोरेगांव लड़ाई में उनके पूर्वजों ने भी भाग लिया था। यह लड़ाई न तो जातीय थी और न ही जाति-उन्मूलन के लिए लड़ी गई थी, बल्कि यह अंग्रेजों और मराठों के बीच एक राजनीतिक संघर्ष था। दोनों सेनाओं में विभिन्न जातियों और धर्मों के सैनिक शामिल थे।
उन्होंने बताया कि भारतरत्न डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने अपने जीवन में केवल एक बार, वर्ष १९२७ में जयस्तंभ का दौरा किया था। यह दौरा अंग्रेजों की गलत और जातिवादी नीतियों के विरोध में था। उस समय अंग्रेजों ने मार्शल रेस सिद्धांत के तहत अनुसूचित जाति के लोगों की सेना में भर्ती बंद कर दी थी। डॉ. आंबेडकर ने इस अन्याय के विरोध में जयस्तंभ जाकर अंग्रेजों को चुनौती दी थी कि इस प्रकार की रोक हटाई जाए।
उन्होंने बताया कि इस युद्ध का नेतृत्व अंग्रेज अफसरों ने ही किया था और इस लड़ाई व जयस्तंभ से जुड़े असली प्राथमिक रिपोर्ट और दस्तावेज उपलब्ध हैं। लेकिन कुछ अलगाववादी समूह इस लड़ाई को जानबूझकर जातीय रंग देकर समाज में फूट डाल रहे हैं। उन्होंने कहा कि 2018 में महाराष्ट्र में एल्गार परिषद के जरिए देशविरोधी तत्वों को एकत्र कर दंगा भड़काया गया था।
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हिन्दुस्थान समाचार / Dhirender Yadav