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-प्रियंका सौरभ
जब भी परीक्षाओं के रिजल्ट आते हैं तो अमूमन सरकारी स्कूलों के मुकाबले प्राइवेट स्कूलों के परिणाम बेहतर होते हैं।इसके पीछे इन स्कूलों के शिक्षकों की कड़ी मेहनत होती है। प्राइवेट स्कूलों में शिक्षकों से उम्मीदें तो आसमान छूती हैं, लेकिन उन्हें न तो उचित वेतन मिलता है, न सम्मान, न छुट्टी और न ही सुरक्षा। महिला शिक्षक दोहरी ज़िम्मेदारियाँ उठाती हैं, वहीं शिक्षक दिवस के दिन सिर्फ प्रतीकात्मक सम्मान मिलता है, जबकि सालभर उनका कथित तौर पर शोषण जारी रहता है। अभिभावक, स्कूल प्रबंधन और सरकार तीनों ही इस शोषण को नजरअंदाज़ करते हैं। शिक्षक के अधिकारों की कोई बात नहीं करता, न ही कोई नियामक संस्था है जो उनके हितों की रक्षा करे। शिक्षकों को कानूनी संरक्षण, संगठित मंच और सामाजिक सम्मान मिलना चाहिए ताकि शिक्षा प्रणाली सच में समावेशी और न्यायपूर्ण बन सके। यदि राष्ट्र को शिक्षित और सशक्त बनाना है तो सबसे पहले शिक्षक को शोषण से मुक्त करना होगा, क्योंकि चॉक से लिखा हर अक्षर, देश का भविष्य गढ़ता है।
एक समय था जब “गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय” जैसे दोहे बच्चों की जुबान पर होते थे। आज हाल ये है कि अगर मास्टर मोबाइल पकड़ लें तो कहा जाता है कि इतनी फुर्सत है तो बच्चों को क्यों नहीं संभालते। ज़माना बदल गया है, अब 'शिक्षक' शब्द पवित्रता नहीं, सहनशीलता का प्रतीक बन गया है। इस सहनशीलता का सबसे क्रूर रूप दिखता है प्राइवेट स्कूल के शिक्षकों की दुनिया में। बाहर से देखिए तो प्राइवेट स्कूल किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं लगते। एसी क्लासरूम, हाईटेक बोर्ड, इंग्लिश बोलते बच्चे और व्हाइट-ग्लव्स पहने बस अटेंडेंट्स। लेकिन अंदर झाँकिए, वहाँ एक मास्टर साहब बैठे हैं, जो न वक्त पर चाय पी सकते हैं, न लंच कर सकते हैं। जो बच्चा होमवर्क न करे, उसकी शिकायत आए तो मास्टर की क्लास लगती है। जो बच्चा एग्ज़ाम में फेल हो जाए तो मैनेजमेंट पूछता है क्यों पढ़ाया नहीं ढंग से।
प्राइवेट स्कूलों में सैलरी का सिस्टम इतना गोपनीय है कि सीक्रेट एजेंसियाँ भी शर्मा जाएं। अपॉइंटमेंट लेटर पर 25,000 रुपये लिखा होता है, लेकिन बैंक में महज 8,000 रुपये ही ट्रांसफर होते हैं। बाकी कैश में मिलते हैं या कभी नहीं मिलते। मजे की बात देखिए कि टीचर जब सैलरी का हिसाब माँगता है तो जवाब होता है, नौकरी चाहिए या नहीं। यदि शिक्षक महिला है तो फिर दिक्कतों की भरमार है। घर में बहू, माँ और पत्नी। स्कूल में मैडम, टीचर और दीदी। महिला शिक्षकों को दोहरी ज़िम्मेदारी के साथ जीना पड़ता है। सुबह पांच बजे से घर संभालो, फिर स्कूल जाओ और वहाँ 40 बच्चों की जिम्मेदारी उठाओ। ऊपर से अगर पति भी प्राइवेट सेक्टर में हो तो महीने की सैलरी से पहले ही घर का बजट गिरवी रख देना पड़ता है।
प्राइवेट शिक्षक की दुश्वारियां यहीं खत्म नहीं होतीं। सरकारी कैलेंडर कहता है कि 15 अगस्त और 26 जनवरी की छुट्टी हैं, लेकिन प्राइवेट स्कूल कहता है कि आओ, झंडा फहराओ, भाषण दो, फिर हाजिरी लगाओ और जाओ। छुट्टी के दिन भी हाज़िरी की मजबूरी। अगर बीमार पड़ गए तो प्रबंधन कहेगा कि छुट्टी नहीं है, डिडक्शन लगेगा। शिक्षक का गला बैठ जाए, तब भी कहा जाता है कि क्लास तो लेनी ही होगी और कोई नहीं है। आज शिक्षक सिर्फ पढ़ाता ही नहीं है, बल्कि वह क्लास टीचर है, परीक्षा नियंत्रक है, अभिभावक संवाद अधिकारी है, व्हाट्सएप ग्रुप एडमिन है, स्पोर्ट्स डे का आयोजक है और हर हफ्ते सेल्फी वाले वीडियो का संपादक भी। लेकिन जब सैलरी की बात आए तो कहा जाता है कि आप तो सिर्फ दो पीरियड पढ़ाते हैं। बच्चा अगर टॉप करे तो प्रिंसिपल प्रेस कॉन्फ्रेंस करता है कि हमारे स्कूल का वातावरण ही ऐसा है। यदि बच्चा फेल हो जाए तो मास्टर की जवाबदेही तय होती है। कहा जाता है कि आपने ठीक से पढ़ाया नहीं। जीत स्कूल की, हार शिक्षक की। फोटो बैनर पर प्रिंसिपल की, मेहनत मास्टर की।
आजकल अभिभावक चाहते हैं कि शिक्षक तीन महीने में उनके बच्चे को आईएएस बना दे। अगर ऐसा न हो पाए तो कहते है कि हम तो सरकारी स्कूल में डाल देते तो भी क्या फर्क पड़ता। बच्चे की गलती भी अब मास्टर की जिम्मेदारी है। पैरेंट्स मीटिंग में सबसे ज़्यादा डांट शिक्षक ही खाता है। पांच सितंबर को बच्चों से हैप्पी टीचर्स डे के फूल मिलते हैं। बच्चे गाना गाते हैं सर आप महान हैं और अगले ही दिन वही बच्चा होमवर्क न करने पर कहता है कि टीचर का क्या है, कुछ भी बोल देते हैं। साल भर की जिल्लत को एक दिन की इज़्ज़त से ढकना, अब आदत बन गई है। नई शिक्षा नीति- 2020 कहती है कि शिक्षक की स्थिति मज़बूत होनी चाहिए। लेकिन ज़मीनी हकीकत ये है कि न कोई रेगुलेशन है, न कोई निगरानी। जिला शिक्षा अधिकारी सिर्फ सरकारी स्कूलों की जांच करते हैं, प्राइवेट स्कूलों को छूट मिली हुई है कि वह अपना नियम खुद बनाएं, खुद चलाएं।
आज छात्र अधिकारों की बात करता है, जैसे मार नहीं खाना, होमवर्क कम मिलना, रिजल्ट अच्छा आना। लेकिन शिक्षक के अधिकारों की बात कौन करे? क्या कोई आटीआई लगा सकता है कि मास्टर को उचित सैलरी मिल रही है या नहीं। क्योंकि शिक्षक अधिकारों की बात करना आज भी असहनीय माना जाता है। अब वक़्त आ गया है कि शिक्षक चुप्पी तोड़े। सरकार को चाहिए कि एक रेगुलेटरी बॉडी बनाए जो प्राइवेट स्कूलों की सैलरी, काम के घंटे, छुट्टियाँ और काम का बोझ तय करे। हर जिले में निजी शिक्षकों की यूनियन बने जो एक स्वर में बोले। अभिभावकों को भी समझना होगा कि शिक्षक सिर्फ एक वेतनभोगी कर्मचारी नहीं, बल्कि उनके बच्चे के भविष्य का निर्माता है। देश को अगर आगे बढ़ना चाहते हो तो सबसे पहले उस हाथ को संभालना होगा जो ब्लैकबोर्ड पर चॉक से भविष्य रचता है। उस आवाज़ को सुनना होगा जो हर दिन गुड मॉर्निंग कहकर बच्चे को दिन की शुरुआत सिखाता है। शिक्षक की मुस्कान में देश की मुस्कान छिपी है, लेकिन उस मुस्कान के पीछे कितना दर्द है, ये जानने वाला कोई नहीं।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
हिन्दुस्थान समाचार / सीपी सिंह