डिजिटल दुनिया का मानसिक बोझ: जब स्टेटस छीनने लगे चैन
-प्रियंका सौरभ आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डाल रहा है। स्टेटस, प्रोफाइल और पोस्ट के ज़रिये लोग अपनी ज़िंदगी का चमकदार पक्ष दिखाते हैं, जिससे दूसरों में असंतोष, ईर्ष्या और आत्म-संदेह पैदा होता है। यह तुलना औ
प्रियंका सौरव


-प्रियंका सौरभ

आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डाल रहा है। स्टेटस, प्रोफाइल और पोस्ट के ज़रिये लोग अपनी ज़िंदगी का चमकदार पक्ष दिखाते हैं, जिससे दूसरों में असंतोष, ईर्ष्या और आत्म-संदेह पैदा होता है। यह तुलना और जिज्ञासा धीरे-धीरे मानसिक अशांति का कारण बन जाती है। सोशल मीडिया के इस्तेमाल में अनुशासन अपनाना ज़रूरी है, जैसे सीमित समय देना, जरूरी चीजें ही देखना और अपनी निजी सीमाएं तय करना। मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए डिजिटल डिटॉक्स, आत्मचिंतन और वास्तविक जीवन के अनुभवों पर ध्यान देने की ज़रूरत है। चैन और शांति बाहरी दुनिया से नहीं, बल्कि आंतरिक अनुशासन और सोच से मिलती है। सोशल मीडिया एक उपकरण है, इसका इस्तेमाल समझदारी से किया जाए तो यह जोड़ता है, वरना तोड़ भी सकता है। आज का युग तकनीक और सूचना का युग है। हम एक क्लिक में दुनिया की हर खबर, हर चेहरे और हर भावना से जुड़ जाते हैं। सोशल मीडिया के माध्यम से हम अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और यहाँ तक कि अजनबियों की ज़िंदगियों का हिस्सा भी बनते जा रहे हैं। यह सुनने में जितना सुखद लगता है, असलियत में उतना ही बोझिल और मानसिक रूप से थकाने वाला हो सकता है।

अब सवाल पैदा होता है कि सोशल मीडिया जुड़ाव या जाल? जब फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप और ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म बने थे, तो उद्देश्य था कि लोगों को जोड़ना, संवाद बढ़ाना और दुनिया को करीब लाना। लेकिन धीरे-धीरे यह जुड़ाव एक आभासी होड़ में बदल गया। अब पोस्ट, स्टेटस और प्रोफाइल पिक्चर के पीछे छिपा होता है एक दिखावे का संसार। हम अपने जीवन के सबसे सुंदर पल ही दूसरों को दिखाते हैं, जैसे हँसी, सैर, सफलता, रिश्ते। लेकिन दुख, तनाव, विफलता, अकेलापन, यह सब छिपा लेते हैं। दिक्कत तब शुरू होती है जब एक आम व्यक्ति, जो एक सामान्य ज़िंदगी जी रहा है, इन 'परफेक्ट ज़िंदगी' वाले स्टेटस और पोस्ट्स को देखकर अपने जीवन को छोटा, अधूरा और असफल समझने लगता है। वह तुलना करने लगता है – 'उसे इतनी सफलता मिल रही है, मैं कहाँ हूँ?' 'वो घूमने गया, मेरे पास तो वक्त भी नहीं है।' 'उसकी लाइफ कितनी परफेक्ट है, मेरी क्यों नहीं?' यही तुलना धीरे-धीरे मानसिक तनाव, ईर्ष्या, आत्म-संदेह और यहां तक कि अवसाद (डिप्रेशन) का कारण बन जाती है।

सुख की चोरी: दूर बैठा इंसान भी छीन सकता है चैनयह एक कड़वी सच्चाई है कि आज कोई इंसान आपको बिना एक शब्द बोले, बिना संपर्क किए, सिर्फ एक स्टेटस लगाकर आपकी नींद उड़ा सकता है। लोग अपनी ज़िंदगी के सबसे चमकदार हिस्से पोस्ट करते हैं, जिससे दूसरों को लगता है कि वो हमेशा खुश हैं। यह आभासी दिखावा हमारे मन को बेचैन कर देता है। हमें लगता है कि हम कुछ पीछे रह गए हैं, हम ‘अपर्याप्त’ हैं। कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो जानबूझकर स्टेटस, फोटो या स्टोरी इस अंदाज़ में लगाते हैं कि दूसरों को चुभे। यह डिजिटल दुनिया का 'पैसिव एग्रेसन' है, जहाँ न तो कोई सीधे कुछ कहता है, न ही सीधे हमला करता है – लेकिन फिर भी मन में गहराई तक असर करता है।

जिज्ञासा या आत्म-प्रवंचना?हमें अक्सर आदत हो जाती है, हर रोज़ चेक करना कि किसने क्या पोस्ट किया, किसकी ज़िंदगी में क्या चल रहा है, कौन कहाँ घूम रहा है, किसकी शादी हुई, किसको प्रमोशन मिला। यह जिज्ञासा धीरे-धीरे एक व्यसन बन जाती है । एक ऐसा नशा जो हमारी मानसिक ऊर्जा को चूसने लगता है। हम हर किसी की प्रोफाइल में झाँकते हैं, उनके फॉलोअर्स गिनते हैं, उनके रिश्तों का अंदाज़ा लगाते हैं और कई बार बिना ज़रूरत के अपने मन को अशांत करते हैं। यह आदत न तो हमें कोई ज्ञान देती है, न कोई वास्तविक खुशी । उल्टा हमारी आत्म-संतुष्टि को मार देती है।

मन की शांति के लिए डिजिटल अनुशासन ज़रूरीइस समय सबसे बड़ा आत्म-संयम यही है कि हम सोशल मीडिया का प्रयोग एक मर्यादा में करें। ज़रूरत है कि हम 'डिजिटल डिटॉक्स' को अपनाएँ, यानी एक तय समय पर फोन, सोशल मीडिया ऐप्स से दूरी बनाएँ। अपने लिए कुछ नियम बनाएं। सुबह उठते ही सबसे पहले सोशल मीडिया चेक न करें। दिन में सिर्फ 2 या 3 बार ही सोशल मीडिया ओपन करें। स्टेटस, प्रोफाइल या पोस्ट देखकर प्रतिक्रिया देने से पहले सोचें- क्या ये जानकारी मेरे लिए ज़रूरी है? हर बार दूसरों से तुलना करने की बजाय, अपने छोटे-छोटे प्रयासों की सराहना करें।

कुछ चीजें निजी रखें, कुछ दूरी ज़रूरी हैहम अक्सर यह भूल जाते हैं कि ज़िंदगी का हर पहलू शेयर करने लायक नहीं होता। अगर हम खुद हर चीज साझा करते हैं तो दूसरों की भी उम्मीद बन जाती है कि वे हमें जज करें। इसीलिए जीवन के कुछ हिस्से को सिर्फ अपने लिए रखें जैसे अपनी सोच, अपनी उपलब्धियाँ, अपने संघर्ष। दूसरों के जीवन में भी बिना चाहे न घुसें। किसी की प्रोफाइल या स्टेटस में झाँकने से पहले सोचें- क्या यह जिज्ञासा है या एक तरह की आत्म-प्रवंचना? क्या यह मुझे ज्ञान दे रही है या बस एक आंतरिक असंतोष?

अपने मन को तरोताजा रखेंहर दिन कुछ समय सिर्फ अपने लिए निकालिए, चाहे वह किताब पढ़ना हो, संगीत सुनना, टहलना, योग, ध्यान या अपने किसी शौक को समय देना। यह सब आपके मन को सुकून देगा और आपको भीतर से संतुलित बनाएं। यह दौर बहुत तेज़ है। हर कोई कुछ साबित करने की दौड़ में है। लेकिन इस दौड़ में अपने मन की शांति को गिरवी रखना बुद्धिमानी नहीं। हमें यह समझना होगा कि मानसिक स्वास्थ्य भी उतना ही ज़रूरी है जितना शारीरिक स्वास्थ्य।

यह ध्यान रखना जरूरी है कि सोशल मीडिया एक औज़ार है । वह हमें जोड़ भी सकता है और तोड़ भी सकता है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम इसे कैसे प्रयोग करते हैं। अपनी सोच को सीमित लोगों से प्रेरणा लेने तक सीमित रखिए और बाकी को 'स्क्रॉल' कर दीजिए – शांति, चैन और सुकून खुद-ब-खुद लौट आएगा।

(लेखिका एक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

हिन्दुस्थान समाचार / सीपी सिंह