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- डॉ. मयंक चतुर्वेदी
अहमदाबाद में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने सरदार पटेल की 150वीं जयंती पर कांग्रेस द्वारा किए जानेवाले कार्यक्रमों के बारे में बताते हुए जिस बात पर जोर दिया, वह था कि ‘‘सरदार पटेल और नेहरूजी के बीच गहरे और मधुर संबंध थे’’ किंतु इतिहास तो कुछ और ही कह रहा है। अब कांग्रेस इस बात को कितना छिपाएगी कि जवाहरलाल नेहरू ने अपने समय में सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे श्रेष्ठ नेताओं के साथ कैसा व्यवहार किया है। आज कांग्रेस सरदार पटेल को लेकर कितना ही झूठा नैरेटिव गढ़ने का प्रयास करे लेकिन इससे सच नहीं बदलने वाला है। इतिहास काल का वह पन्ना है, जिसमें एक बार जो कहानी लिख जाती है, वह फिर मिटाए नहीं मिटती। क्योंकि ये इतिहास फिर कभी अपनी वैसी ही पुनरावृत्ति नहीं करता, जैसा कि तत्कालीन समय में घटता है।
कांग्रेस ने वास्तव में जो सरदार पटेल के साथ किया, उसे कभी माफ नहीं किया जा सकेगा। सरदार पटेल की जब मृत्यु हुई तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की एक घोषणा सामने आई और इस घोषणा के तुरन्त बाद एक आदेश भी आया। उस आदेश में दो बातों का प्रमुखता से जिक्र था, पहला-सरदार पटेल को दी गयी सरकारी कार उसी वक्त वापस ले ली जाय और दूसरा, गृह मंत्रालय के वे सचिव/अधिकारी जो सरदार-पटेल के अन्तिम संस्कार में बम्बई जाना चाहते हैं, वे अपने खर्चे पर जाएं। सरदार पटेल के प्रति नेहरू के अंदर का विद्वेष इतना करके भी रुक जाता तब भी बहुत होता; किंतु वह कहां माननेवाले थे। उसके बाद नेहरू ने अपने मंत्रिमण्डल की तरफ से तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को कहलवाया कि वे सरदार पटेल के अंतिम संस्कार में भाग लेने के लिए नहीं जाएं। पर जब नेहरू को पता चला कि वे अंतिम संस्कार में जा रहे हैं तो तुरंत उन्होंने वहां सी. राजगोपालाचारी को भेजा और जो सरकारी श्रद्धाजंलि (स्मारक) पत्र राष्ट्रपति के नाते डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा पढ़ा जाना था, वह उनसे न पढ़वाते हुए उसे सी. राजगोपालाचारी को सौंप दिया गया।
इतना होने के बाद भी जवाहरलाल नेहरू के अंदर सरदार पटेल को लेकर जो गुस्सा भरा था, वह कम होने का नाम नहीं ले रहा था। यदि यह सच नहीं है, तो फिर क्यों बार-बार कांग्रेस के अन्दर से स्व. पटेल के स्मारक बनाने की मांग उठ रही थी और कहा जा रहा था कि इतने बड़े नेता की याद में सरकार को कुछ करना चाहिए पर नेहरू लगातार विरोध करते रहे, फिर जब नेहरू ने देखा कि पार्टी में उनके प्रति मनमुटाव पैदा हो रहा है, तब जाकर उन्होंने इस बारे में सोचे जाने और कुछ करने की हामी भरी थी। कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में नेहरू के खिलाफ सरदार पटेल के नाम को रखने वाले वरिष्ठ कांग्रेसी पुरुषोत्तमदास टंडन को पार्टी से बाहर कर देने का उनका फरमान भी पटेल के प्रति नेहरू की अंदरूनी नफरत को प्रदर्शित करता है। जबकि होना ये चाहिए था कि समर्पण दोनों तरफ का होता, देश की स्वाधीनता में जो सरदार पटेल का योगदान रहा, वह अद्वितीय है, जो सरदार देश के प्रधानमंत्री बनने जा रहे थे, उन्होंने महात्मा गांधी के कहने पर गृहमंत्री बनना स्वीकार किया। फिर भी हो क्या रहा था? ये समर्पण एकतरफा दिखाई दे रहा था। नेहरू का रुख सरदार के प्रति उनके अंतिम समय तक नहीं बदला। दूसरी ओर सरदार वल्लभ भाई पटेल महात्मा गांधी से वचनबद्ध थे, वह पहले ही उनके सामने ये हामी भर चुके थे कि वे जवाहरलाल नेहरू को अकेला नहीं छोड़ेंगे, जब तक उनकी सासें चल रही हैं, उनका नेहरू के प्रति एकतरफा समर्पण रहेगा। जो उन्होंने महात्मा गांधी से कहा, उसे अपनी अंतिम सांस तक पूरी शिद्दत के साथ निभाया भी। किंतु दूसरी तरफ जवाहरलाल थे, जिन्होंने सरदार पटेल को लेकर अपनी अंदर एक नकारात्मक ग्रंथी एकबार पाल ली तो वे कभी उससे बाहर ही नहीं निकले।
विजन बुक्स द्वारा प्रकाशित पुस्तक “इनसाइड स्टोरी ऑफ सरदार पटेल: द डायरी ऑफ मणिबेन पटेल 1936-50” जोकि सरदार पटेल की बेटी द्वारा अब तक अज्ञात डायरी का पहला प्रकाशन है, बहुत कुछ कह देती है। वस्तुत: मणिबेन आमतौर पर पटेल के साथ हर जगह जाती थीं और सरदार की ज़्यादातर बैठकों में उनके साथ मौजूद रहती थीं। इसलिए वह इन बैठकों में होने वाली घटनाओं और सरदार के विचारों और विभिन्न ऐतिहासिक और संवेदनशील मुद्दों पर उनके अंतरतम विचारों से अवगत थीं, जिन्हें वह अक्सर अपने सबसे करीबी दोस्तों और सहकर्मियों के सामने भी व्यक्त नहीं कर पाते थे। इसके अलावा, गांधीजी की देखभाल में कई साल बिताने और उच्च बुद्धि रखने के कारण, मणिबेन उस समय की घटनाओं और नाटकीय पात्रों के संदर्भ और महत्व दोनों को समझती थीं। यह डायरी 8 जून 1936 से लेकर 15 दिसम्बर 1950 को सरदार की मृत्यु तक की है, इसमें 1945 में पटेल की जेल से रिहाई के बाद का विस्तृत विवरण है। इसमें भारत के इतिहास के उस निर्णायक काल के बारे में अक्सर खुलासा करने वाले, कभी-कभी विस्फोटक विवरण और अंतर्दृष्टि का खजाना है, जिसमें देश की स्वतंत्रता, विभाजन, रियासतों का एकीकरण, गांधीजी की हत्या और फिर भारत के स्वशासन के प्रारंभिक, महत्वपूर्ण वर्ष शामिल हैं, जिनमें पटेल की एक अपरिहार्य, महत्वपूर्ण भूमिका थी।
अपनी इस डायरी में मणिबेन लिखती हैं, पटेल-नेहरू के मतभेदों में कई लोगों ने भूमिका निभाई थी, विशेष रूप से रफी अहमद किदवई, समाजवादियों और मौलाना आज़ाद ने भी। डायरी सरदार को मंत्रिमंडल से बाहर करने के लिए उनकी चालों का खुलासा करती है। मणिबेन ने लिखा है: “सरदार पटेल नेहरू-लियाकत अली समझौते से खुश नहीं थे क्योंकि इसने पूर्वी पाकिस्तान से हिंदुओं के पलायन को नहीं रोका जो बढ़ता ही गया और बड़ी संख्या में हिंदू भारत में पलायन करते रहे। सरदार पटेल ने देखा कि वे हत्याओं के बारे में इतने चिंतित नहीं थे, आखिरकार बंगाल के अकाल में 30 लाख लोग मारे गए थे, लेकिन वे महिलाओं पर हमले और उन्हें जबरन इस्लाम में धर्मांतरित किए जाने को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे।” (5 अप्रैल, 1950)। सरदार ने आगे कहा: “सिंध, पंजाब, बलूचिस्तान और सीमांत प्रांतों में हिंदू पूरी तरह से खत्म हो चुके थे। पूर्वी पाकिस्तान में भी यही हो रहा था और हाफिजुर रहमान जैसे लोग, जो भारत में रह गए थे, भारत में मातृभूमि के लिए शोर मचा रहे थे। तब हमारी क्या स्थिति होगी? हमारी आने वाली पीढ़ियाँ हमें देशद्रोही कहेंगी।” (24 अप्रैल, 1950)
मणिबेन ने कश्मीर के विभाजन की संभावना के बारे में नेहरू के कुछ वफादारों द्वारा की गई चर्चा का भी उल्लेख किया, जिसमें भारत द्वारा जम्मू को अपने पास रखना और शेष राज्य को पाकिस्तान को सौंपना शामिल था। पटेल ने जवाब दिया: “हमें पूरा क्षेत्र चाहिए… और पूरे कश्मीर के लिए लड़ाई।” (23 जुलाई, 1949)। इस पुस्तक में अनेक प्रसंग हैं जो यह बताते हैं कि कैसे एक राष्ट्रभक्त पटेल को परेशान करने का काम तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू कर रहे थे।
देखा जाए तो यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि कांग्रेस ने कभी सरदार पटेल के बताए रास्ते पर चलना स्वीकार्य नहीं किया, उल्टे वह नेहरू के नेतृत्व में उनके कामों में कमियां ढूंढ़ती रही, अब जब उन्हें लेकर और उनके काम को लेकर भारतीय जनता पार्टी देश हित में काम कर रही है तो कांग्रेस यह बताने का दिखावा कर रही है कि कैसे जवाहरलाल नेहरू को सरदार वल्लभ भाई पटेल सुहाते थे, जोकि पूरी तरह से सत्य से परे है। यही सच है कि 1950 में पटेल के आकस्मिक निधन ने नेहरू को भारत के निर्विवाद नेता के रूप में छोड़ दिया, लेकिन इतिहास ने स्व. पटेल के साथ न्याय किया है। सरदार पटेल हमेशा ही नेहरू को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करने के लिए जाने जाते रहेंगे। वे राष्ट्रीय हित के लिए व्यक्तिगत वैचारिक मतभेदों को दरकिनार करने वाले एक दृढ़ एवं महान नेता के रूप में याद किए जाते रहेंगे। इस दिशा में “स्टैच्यू ऑफ यूनिटी” से बड़ा कोई अन्य उदाहरण नहीं हो सकता है। अब फिर कांग्रेस आज के दौर में कितना भी झूठा नैरेटिव गढ़े, इतिहास सच दोहराता रहेगा और कांग्रेस का झूठ लोगों के बीच बार-बार आता रहेगा।
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी