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-अजय कुमार शर्मा
श्रेष्ठ और लोकप्रिय अभिनेता बलराज साहनी ने भारतीय सिनेमा के अभिनेताओं की एक पूरी पीढ़ी को प्रेरित किया। उनके प्रशंसकों में अमिताभ बच्चन, नसिरुद्दीन शाह से लेकर ओमपुरी, सौमित्र चटर्जी तक शामिल थे। अभिनय के अलावा भी उनका एक बहुआयामी व्यक्तित्व था, जहाँ वे देश और समाज के उत्थान के प्रति हमेशा सजग और कार्यशील रहे। आज उनकी पुण्यतिथि (13 अप्रैल ) पर प्रस्तुत है उनके पुत्र परीक्षत साहनी जो स्वयं प्रख्यात अभिनेता, लेखक और निर्माता-निर्देशक हैं, उनके द्वारा अपने पिता पर लिखी पुस्तक मेरे पिता की यादें बलराज साहनी से एक प्रेरक किस्से का संपादित अंश। यह अंश उस महान अभिनेता की अपने काम के प्रति श्रद्धा और जुनून को तो रेखांकित करता ही है, साथ ही उनके जीवन को भी बदलने वाला साबित होता है। वे लिखते हैं - मुझे 1969 की फिल्म पवित्र पापी में हीरो के रूप में लिया गया था। डैड ने अपनी आत्मकथा में बड़ी साफ़गोई से लिखा था कि कैसे पहली बार कैमरे का सामना करते हुए वे जड़वत हो गए थे। मेरा भी वही अनुभव रहा। मुझे अपनी लाइनें ही याद नहीं आ रही थीं। मैं रूसी, पंजाबी और अंग्रेज़ी भाषाएँ इसी क्रम में धाराप्रवाह बोल पाता था। हिन्दी में, मैं उतना सहज नहीं था। एक गाने की शूटिंग के दौरान मैं प्रतिक्रिया देने की बजाए एक जूनियर डांसर से आंखें मिला रहा था। यह देख डैड मुझे एक तरफ ले गए और बोले तुम इस गीत में कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दे रहे ?
ओह, कम ऑन डैड, यह एक गाना ही तो है।'
तुम कौन हो? तुम यहाँ पर किसलिए हो? तुम यहाँ कब आए? यहाँ कैसे आए? तुम कहाँ हो?
इन सवालों से मैं घबरा गया।
'मैं आपका बेटा हूँ! मैं यहाँ पर इसलिए हूँ क्योंकि निर्देशक ने मुझे इस फिल्म के लिए कास्ट किया है। अभी दिन के ग्यारह बजे हैं और मैं आपके साथ कार से आया हूँ और इस तरह मैं यहाँ पर हूँ।' मैंने उनके सवालों का शब्दशः जवाब दिया, मैं उनके सवालों की झड़ी से हतप्रभ था।
'गलत! यहाँ पर तुम मेरे बेटे नहीं हो। तुम केदारनाथ हो। तुम यहाँ इसलिए आए हो क्योंकि मैंने तुम्हें घड़ीसाज के रूप में काम पर रखा है और तुम मेरे घर पेइंग गेस्ट बन कर रह रहे हो। अभी सुबह के ग्यारह नहीं बजे हैं। यह रात का सीन है और तुम मेरे साथ मेरी कार में नहीं आए हो। तुम रेलवे स्टेशन से चल कर आए हो और यही तुम्हारा किरदार है।' 'ओह,' मैंने कहा 'मैं जो रोल निभा रहा हूँ, आप उसके बारे में बात कर रहे हैं... अच्छा। लेकिन आप मुझे यह सब क्यों बता रहे हैं?
'सुनो बेटा, यह कोई फ़िल्म सेट नहीं है। यह मेरे लिए पवित्र भूमि है। मैं धार्मिक नहीं हूँ। नास्तिक हूँ। मैं मंदिरों, चर्च या गुरुद्वारों में नहीं जाता। यह स्थान और यह सेट जहाँ पर मैं काम करता हूँ, यही मेरा मंदिर है। यही मेरी पूजा की जगह है। मेरे लिए काम ही पूजा है। चाहे वह हिंदी फिल्म हो या हॉलीवुड की, चाहे सीन छोटा हो या लम्बा, मुझे हर समय अपना सर्वश्रेष्ठ देना होता है-जब मैं मेकअप करके सेट पर होता हूँ।
मैंने उनकी ओर देखा, वह बोलते रहे, 'शूटिंग खत्म होने के बाद तुम जो चाहे, सो कर सकते हो। शराब पिओ, रेड लाइट एरिया में जाओ और जो पसन्द आ जाए उसके साथ मौज-मस्ती करो। लेकिन, बस मुझ पर एक अहसान करो। मैं जिस मंदिर में पूजा करता हूँ, उसे गन्दा मत करो। जैसा कि मैंने कहा कि यह मेरे लिए एक पवित्र भूमि है। हमारे जीवन का उद्देश्य उत्कृष्टता हासिल करने का प्रयास करना है। यदि आपने कोई काम हाथ में लिया है तो उसे अपनी पूरी क्षमता के साथ पूरा करो और यदि ऐसा नहीं कर सकते हैं तो पहले ही मना कर दें।
उन्होंने दूर से ही कैमरे की ओर इशारा किया और बोले, 'ये जो लेंस नामक चीज़ है ना वह राक्षस है। यह सबकुछ आर-पार देख सकता है। यह आपके आंतरिक विचारों और मनोदशाओं को पकड़ लेता है। यदि आप अपने आसपास के लोगों को बेवकूफ समझकर छल कर रहे हैं तो कैमरे का लेंस आपके हर भाव को कैद करेगा और स्क्रीन पर एक हज़ार गुना बढ़ा कर दिखाएगा। कैमरा कभी झूठ नहीं बोलता। इसलिए मेरी सलाह है कि या तो तुरन्त इस फिल्म को करने से मना कर दो। यदि इसमें काम करना ही चाहते हो तो अपने काम को गम्भीरता से लो। इसके बाद जैसे ही डैड वहाँ से जाने लगे, पीछे मुड़ कर मुझसे एक बार फिर बोले, याद रखना, यह मेरा पूजा का स्थान है।'
यह मेरे चेहरे पर एक हल्का लेकिन बहुत प्रेरक थप्पड़ था।
डैड के शब्दों ने मुझ पर अमिट छाप छोड़ दी और मेरी कार्यशैली बदल गई। उस दिन के बाद से मैंने फिल्म इण्डस्ट्री में किसी भी महिला कलाकार के साथ, चाहे जूनियर हो या सीनियर, कभी भी फ़्लर्ट नहीं किया। मैंने उनके नक्शे-कदम पर चलने की कोशिश की है, हालांकि यह आसान नहीं था।
-चलते चलते
फिल्म -ऊधम सिंह -में परीक्षत साहनी एक क्रांतिकारी और बलराज साहनी एक गांधीवादी नेता बने थे। एक दृश्य में परीक्षत को उनके साथ तीखी बहस के बाद मुँह पर थूकना था जो वे नहीं कर पा रहे थे। लेकिन बलराज जी ने तब तक टेक ओके नहीं होने दिया जब तक उन्होंने सचमुच उनके मुंह पर गुस्से में थूक नहीं दिया। परीक्षत को अपने आप पर शर्म आ रही थी। उन्हें लग रहा था कि उन्होंने बहुत बड़ा गुनाह कर दिया। लेकिन, बलराज बहुत खुश थे, उन्होंने उन्हें गले लगा लिया और बोले, 'वेल डन! याद रखो, अभिनय, अभिनय नहीं होता, एक विश्वास होता है। जब कैमरा चलता है तब तुम मेरे बेटे नहीं हो। तुम ऊधम सिंह हो और मैं तुम्हारा पिता नहीं हूँ। मैं तुम्हारा दुश्मन हूँ। इसलिए, हर शॉट से पहले, एक मैजिक सर्कल बनाओ। यूनिट, निर्देशक और तमाशबीनों को भूल जाओ। अपने चरित्र और जिस परिस्थिति में हो, उसमें समा जाओ।'
हिन्दुस्थान समाचार / CP Singh