सच का सामना करने को तैयार नहीं कांग्रेस
मनोज कुमार मिश्र लगातार सिमटती जा रही कांग्रेस अभी भी सच का सामना करने को तैयार नहीं है। पिछले दिनों गुजरात में अहमदाबाद के साबरमती तट पर अपने दो दिवसीय अधिवेशन में कांग्रेस खोई जमीन पाने का सही रास्ता नहीं ढूंढ़ पाई। सालों बाद नेहरू-गांधी परिवार से
मनोज कुमार मिश्र, कार्यकारी संपादक, हिन्दुस्थान समाचार


मनोज कुमार मिश्र

लगातार सिमटती जा रही कांग्रेस अभी भी सच का सामना करने को तैयार नहीं है। पिछले दिनों गुजरात में अहमदाबाद के साबरमती तट पर अपने दो दिवसीय अधिवेशन में कांग्रेस खोई जमीन पाने का सही रास्ता नहीं ढूंढ़ पाई। सालों बाद नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं। उनका कहना था कि कांग्रेस कार्यकर्ता लोकतंत्र के लिए आजादी की दूसरी लड़ाई में पूरी ताकत से जुटें। उन्होंने ईवीएम को धोखाधड़ी बताते हुए फिर से बैलेट पेपर से चुनाव कराए जाने की मांग की। चुनाव हारने के बाद हर बार कांग्रेस और विपक्ष के नेता ईवीएम पर सवाल उठाते आए हैं। वे शायद भूल गए हैं कि लोकतंत्र को कुचलने के लिए आजादी के बाद एक ही बार आपातकाल लगा, वह भी कांग्रेस की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासन में। इसी तरह वक्फ संशोधन विधेयक पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने सरकार पर कथित रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आएसएस) के नियंत्रण के खिलाफ आंदोलन चलाने की बात कही। वे यह अफसोस जता रहे थे कि कांग्रेस ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम वोट को साथ रखने के प्रयास में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) से दूरी बना ली और जातिगत गनगणना करवाने के लिए आंदोलन तेज करने के दावे किए।

दो दिनों के अधिवेशन में अनेक भाषण हुए और प्रस्ताव पास हुए लेकिन पूरी बैठक में पार्टी भ्रम में जीती दिखी। पार्टी अध्यक्ष ने कहा कि जो सक्रिय नहीं रह सकता वह पार्टी छोड़ दे। इस अधिवेशन में न तो इस पर ठीक से चर्चा हुई कि आखिर ऐसा क्यों होता है कि जिन बड़े राज्यों तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात इत्यादि से कांग्रेस एक बार पराजित हुई तो वहां सालों-साल उसकी वापसी नहीं हो पाई। राष्ट्रीय स्तर पर भी वह लगातार तीन बार से सत्ता से बाहर है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जितनी आलोचना वे करते हैं, पार्टी की राजनीतिक जमीन उतनी ही खिसकती जा रही है।

कांग्रेस को आजादी के 77 साल बाद देश के पहले उप प्रधानमंत्री, लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की याद आई। बावजूद इसके जिस राज्य में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, उसी राज्य के केवड़िया में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहल पर बनी दुनिया की सबसे ऊंची सरदार पटेल की प्रतिमा को नमन करने कोई कांग्रेस नेता आज तक नहीं गया। अंग्रेजों ने 1947 में देश को आजाद करने के साथ-साथ पांच सौ से अधिक रियासतों को भारत या पाकिस्तान में विलय करने की स्वतंत्रता देकर नई मुसीबत खड़ी कर दी थी। सरदार पटेल के प्रयास से उन रियासतों का भारत में विलय हुआ। सरदार पटेल आजादी के बाद कम समय जीवित रह पाए लेकिन उनकी कीर्ति का देश हजारों साल कर्जदार रहेगा।

महात्मा गांधी से सलाह करके ही सरदार पटेल ने ऐतिहासिक सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। इस मंदिर के प्रण-प्रतिष्ठा समारोह में देश के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद शामिल हुए। इसकी चर्चा करने से कांग्रेस के नेता बचते हैं। यह सर्वविदित है कि अयोध्या में भगवान राम की जन्मभूमि पर मंदिर बनाने का निर्णायक आंदोलन आरएसएस के संरक्षण में विश्व हिंदू परिषद आदि ने चलाया और अदालत के फैसले के बाद भव्य मंदिर का निर्माण लगभग अंतिम चरण में है। 22 जनवरी, 2024 को हुए प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में कांग्रेस का कोई बड़ा नेता शामिल नहीं हुआ। जबकि मंदिर का ताला केन्द्र में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहने के दौरान खुला था। प्राण प्रतिष्ठा समारोह में देश-दुनिया के लोग बड़ी तादाद में आए। इसी तरह प्रयागराज के महाकुंभ में लोगों के आने का नया रिकॉर्ड बना लेकिन कांग्रेस का कोई चर्चित चेहरा उसमें नहीं दिखा।

सबसे अजूबा यह है कि जिस कांग्रेस का पूरा ही नेतृत्व राष्ट्रवादी धारा के खिलाफ हर तरह का आचरण कर रहा है, वह पूरी तरह से राष्ट्रवादी विचार पर चले आजादी के आंदोलन जैसा आंदोलन चलाने की बात कह रही है। यह साबित हो गया है कि वक्फ संशोधन कानून का विरोध केवल पैसे वाले, प्रभावशाली या आम भाषा में कहें तो माफिया कर रहे हैं, उसी को आधार बना कर कांग्रेस आंदोलन चलाना चाहती है। इस समय राहुल गांधी, उनकी बहन प्रियंका गांधी और मां सोनिया गांधी, तीनों संसद के सदस्य हैं। संसद के दोनों सदनों में इस विधेयक पर हुई चर्चा में इनमें से कोई शामिल नहीं हुआ।

यह सही है कि कभी कांग्रेस को ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यकों का सर्वाधिक समर्थन मिलता रहा। कांग्रेस सौ साल से पुरानी पार्टी है और देश और अधिकतर राज्यों में सबसे ज्यादा समय तक कांग्रेस का ही राज रहा। सालों कांग्रेस देश की अकेली पार्टी थी जिसका झंडा, चुनाव चिह्न और नेता गांव-गांव के लिए परिचित था।तब भी देश की आधे से ज्यादा आबादी ओबीसी की ही थी, यह आज भी है। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का कार्यकाल इस तरह के जातीय समीकरण से परे माना गया था। इंदिरा गांधी ने कांग्रेस का विभाजन कराया और सत्ता में रहकर बांग्लादेश को आजाद कराया। गरीबी हटाओ नारा भले ज्यादा कारगर न हुआ लेकिन बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्स की समाप्ति बड़े मुद्दे बने। यह अजब संयोग है कि जिस पार्टी में यह नारा लगता था- जात पर न पात पर इंदिरा जी की बात पर- उसी पार्टी के नेता जाति जनगणना करवाने के लिए हर सीमा पार किए हुए हैं। यह भी अजीब संयोग है कि जिन राज्यों-कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है, वे ही जातिगत जनगणना नहीं करवा पाई। दूसरे, वे सरकारें कब तक हैं या दोबारा इनमें से किसमें फिर से कांग्रेस की सरकार बनेगी, कहा नहीं जा सकता।

आज की भाजपा पहले वाली जनसंघ नहीं है। 11 साल से प्रधानमंत्री पद पर कायम नेता नरेन्द्र मोदी ओबीसी बिरादरी से आते हैं। केन्द्रीय मंत्रिपरिषद् से लेकर भाजपा की राज्य सरकारों में बड़ी तादाद में पिछड़ी कही जाने वाली जातियों के मंत्री हैं। इतना ही नहीं यह तीन बार लोकसभा चुनाव और अनेक राज्यों के चुनाव में साबित हो चुका है कि बड़ी तादाद में ओबीसी वोट भाजपा को मिलता है। दलित वोट भी हर राज्य में भाजपा को ही सर्वाधिक मिलता रहा है, केवल 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष के भाजपा के चार सौ सीटें आने पर आरक्षण खत्म करने के बेबुनियाद प्रचार ने भाजपा को नुकसान जरूर पहुंचाया। तब भी भाजपा की अगुवाई में लगातार तीसरी बार केन्द्र में सरकार बनी।

यह समझ से परे है कि सुप्रीम कोर्ट ने पचास फीसदी से ज्यादा आरक्षण की सीमा बढ़ाने से इनकार कर दिया है, ऐसे में जाति जनगणना करा कर कांग्रेस पार्टी क्या करेगी। क्या केवल जनगणना कराने से पिछड़ों का वोट मिल जाएगा। देश की आबादी में 56 फीसदी आबादी युवाओं की है। कांग्रेस में इस पर बहस नहीं चल रही है कि वह कितने युवाओं को जोड़ पाई है। जो माहौल दिख रहा है उसमें नरेन्द्र मोदी के रहते भाजपा समर्थक मतों में सेंध लगाना किसी के वश में नहीं है। अगर ऐसा होता तो 2024 के लोकसभा चुनाव में पिछली बार से कम सीटें पाने बावजूद भाजपा हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली विधानसभा का चुनाव भाजपा नहीं जीत पाती।

अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे ने कहा कि जो मेहनत नहीं करना चाहते हैं, उनके लिए पार्टी में जगह नहीं है। एक तो उनके बयान पर अनेक बड़े नेताओं की प्रतिक्रिया आने लगी और इसी मुद्दे पर नई गुटबाजी होती दिख रही है। दूसरे, सालों सत्ता में रहने का हैंगओवर अभी तक अनेक नेताओं से नहीं उतरा है। ज्यादातर नेता न तो आम जनता से मिलते हैं और न ही उनके फोन उठाते हैं। कांग्रेस के अनेक ऐसे नेता मिलेंगे जो यह कहते हैं कि कांग्रेस में कार्यकर्ता बनाने की प्रक्रिया ही समाप्त हो गई है। कांग्रेस में तो लोग सीधे पद पाने आते हैं। इसका एक बड़ा उदाहरण दिल्ली के कांग्रेस नेता हैं, जो बार-बार पराजित होने के बावजूद न तो आम लोगों के बीच जाने को तैयार हैं और न ही नए लोगों को आगे करने को तैयार हैं।

हालात ऐसे हैं कि जिन राज्यों से कांग्रेस की एकबार विदाई हो जाती है, वहां संयोग से ही दोबारा कभी सत्ता में आ पाती है। जिन राज्यों से कांग्रेस की लंबी विदाई हुई है, उसमें एक राज्य बिहार है, जहां इस साल के अंत तक चुनाव होना है। कांग्रेस अभी तक दुविधा में है कि वह वहां अकेले विधानसभा चुनाव लड़े या पिछली बार की तरह राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ मिलकर चुनाव मैदान में जाए। कांग्रेस ने उम्मीदवार के रूप में लगातार दो लोकसभा चुनाव हारे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता कन्हैया कुमार को अघोषित तरीके से नेता बना दिया है।

देश की राजधानी दिल्ली में 27 साल बाद भाजपा सत्ता में वापसी की। उससे भाजपा के नेता जितने खुश थे उतने ही कांग्रेस के नेता। कांग्रेस नेताओं को लगा कि दस साल से दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी (आआपा) तो उनके ही समर्थक वोट से सत्ता में आई थी, अब उसके सत्ता से हटते ही कांग्रेस के वोट जैसे जादू-मंतर से वापस कांग्रेस के पास चले जाएंगे। ऐसा होगा कैसे, यह किसी कांग्रेस नेता को पता नहीं है।

कांग्रेस के स्थानीय नेता ही नहीं, राष्ट्रीय नेता भी जैसे दिन में स्वप्न देख रहे हैं। पार्टी का जनाधार सिमटता जा रहा है। एक के बाद एक राज्य से उसकी विदाई हो रही है। भाजपा को पराजित करने की मंशा से बने विपक्षी गठबंधन के अनेक दल आपस में ही लड़ रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस हाईकमान शायद सच का सामना करने से बच रहा है। उसकी जमीन लगातार खिसकती जा रही है। व्यापक तैयारी और लोगों के बीच मजबूत आधार बनाए बिना पार्टी के पुराने दिन लौटने से रहे।

(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।)

---------------

हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश