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जम्मू, 31 मार्च (हि.स.)। एक पूज्य संत और समाज सुधारक गुरु रविदास ने समानता, करुणा और एकता पर आधारित जातिविहीन समाज की कल्पना की थी। वाराणसी में एक साधारण परिवार में जन्मे उन्होंने जाति-आधारित भेदभाव की कठोर वास्तविकताओं का प्रत्यक्ष अनुभव किया। पूर्वाग्रह और सामाजिक बहिष्कार का सामना करने के बावजूद गुरु रविदास अपनी गहरी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता के माध्यम से इन सीमाओं से ऊपर उठ गए।
गुरु रविदास विश्व महापीठ के राष्ट्रीय महासचिव, ब्रिटिश रविदासिया हेरिटेज फाउंडेशन भारतीय शाखा के महासचिव और बेगमपुरा विश्व महासभा के सदस्य रहे। बलबीर राम रतन ने इसे स्वर्णकार संघ जम्मू के अध्यक्ष अजय वैद और रक्षा लेखा विभाग के सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हंस राज लोरिया के साथ साझा करते हुए बताया कि गुरु रविदास की शिक्षाओं का विचार यह था कि सभी मनुष्य ईश्वर की नज़र में समान हैं, चाहे उनकी जाति पंथ या सामाजिक स्थिति कुछ भी हो। उन्होंने समाज में व्याप्त कठोर जाति व्यवस्था को खारिज कर दिया और उपदेश दिया कि सच्ची भक्ति और धर्मनिष्ठा का किसी के जन्म से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि यह किसी के कर्मों और हृदय की पवित्रता से जुड़ा है। उनका संदेश सरल लेकिन गहरा था। आध्यात्मिक मुक्ति और सामाजिक समानता अविभाज्य हैं। जातिविहीन समाज की उनकी दृष्टि बेगमपुरा की उनकी अवधारणा में समाहित थी जो बिना दुख दर्द या भेदभाव वाला शहर था।
इस आदर्श समाज में सभी लोग उत्पीड़न और शोषण से मुक्त होकर सौहार्दपूर्वक रहेंगे। उनकी शिक्षाएँ विनम्रता, करुणा और धार्मिकता जैसे मूल्यों पर जोर देती हैं। उनकी कविता सामाजिक असमानता के खिलाफ बोलती है और एक न्यायपूर्ण और दयालु दुनिया की वकालत करती है जहाँ हर व्यक्ति को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है। गहराई से विभाजित समाज में रहने के बावजूद गुरु रविदास ने विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमियों से अनुयायियों को आकर्षित किया जिनमें उच्च और निम्न दोनों जातियाँ शामिल थीं।
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हिन्दुस्थान समाचार / रमेश गुप्ता