भौतिकतावादी समाज में बूढ़ों की स्थिति का सटीक चित्रण था नाटक “संध्या छाया”
प्रयागराज, 30 मार्च (हि.स.)। मर्म को स्पर्श कर देने वाले नाटक संध्या छाया के अदभुत मंचन के साथ रवींद्रालय प्रेक्षागृह में रविवार को विनोद रस्तोगी स्मृति संस्थान के तीन दिवसीय रंग​ विनोद नाट्य महोत्सव 2025 का समापन हुआ। बीते तीन दिन स्तरीय नाट्य प्रस्
प्रयागराज: नाटक संध्या छाया का एक दृश्य


प्रयागराज, 30 मार्च (हि.स.)। मर्म को स्पर्श कर देने वाले नाटक संध्या छाया के अदभुत मंचन के साथ रवींद्रालय प्रेक्षागृह में रविवार को विनोद रस्तोगी स्मृति संस्थान के तीन दिवसीय रंग​ विनोद नाट्य महोत्सव 2025 का समापन हुआ। बीते तीन दिन स्तरीय नाट्य प्रस्तुतियों का साक्षी रहा।

देश के प्रख्यात मराठी नाटककार जयवंत दलवी छारा लिखित संध्या छाया एक प्रसिद्ध नाटक है। यह नाटक जीवन के अंतिम पड़ाव पर अकेले रह रहे वृद्ध लोगों की समस्याओं को लेकर बाखूबी दर्शाया है। यह जानकारी देते हुए रविवार को संस्थान के सचिव आलोक रस्तोगी ने बताया कि नाटक में इस बात पर गहनता से प्रकाश डाला गया है की पारिवारिक जीवन की आधुनिक अवधारणा में एक-दूसरे के साथ रिश्तों की डोर कमजोर होती जा रही है। भौतिक और आर्थिक लाभ के लिए परिवार के सदस्य एक-दूसरे से दूर होते जा रहे हैं।

नाटक में एक बूढ़े दम्पत्ति नाना और नानी को दिखाया गया है, जो अपने बच्चों के प्यार से वंचित होने के बावजूद, उनमें अभी भी अपने जीवन की उदासी और करुणा से लड़ने का साहस है। वे एक-दूसरे का समर्थन करते हैं, प्यार करते हैं , नोंक-झोंक करते हैं और जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता है, दर्शकों को उनसे प्यार तो‌ हो ही जाता है, साथ ही दर्शक उनसे भावुक तौर पर भी जुड़ जाते हैं।

नाटक दर्शाता है कि बूढ़े लोग जो आज के भौतिकवादी युग में इतने उपयोगी नहीं हैं, बदलते मूल्यों का खामियाजा भुगत रहे हैं और समय जैसे-जैसे आगे बढ़ता है वे और अधिक अकेले होते जाते हैं। यह नाटक मनोरंजक तो है ही साथ ही दर्शकों को अकेलेपन और बुढ़ेपन की‌ मासूमियत का स्पर्श देकर भावुक भी करता है।

थिएटर फार थिएटर के निर्देशक एवं चंडीगढ़ संगीत नाटक अकादमी के मौजूदा अध्यक्ष सुदेश शर्मा के निर्देशन में बुने गए इस बेहद ही संजीदा नाटक की कहानी रेलवे से सेवानिवृत्त एक दंपती की है जो‌ अकेले घर में रह रहे हैं। उनके दो बेटे हैं। एक अमेरिका में और दूसरा सेना में कार्यरत है। शहर में अकेले नौकर के साथ एकाकी जीवन बिता रहे माता-पिता की समस्याओं को नाटक की कहानी बेहद पुख्ता ढंग से दिखाती है। विदेश में रह रहा बेटा दोस्त के हाथ माता-पिता के लिए रुपए भेजता है। दोस्त से माता-पिता को पता चलता है कि उनके बेटे ने विदेश में शादी कर ली है। इससे दंपती को काफी धक्का लगता है। जब उनकी बेटे से फोन पर बात होती है तो वह सिर्फ रुपयों की बात करता है, उनके बारे में और उनसे मिलने आने का कोई ज़िक्र नहीं करता। यही सब चिंताएं दंपती को अंदर ही अंदर खा जाती हैं। तभी नाटक में दिखाया कि पाकिस्तान के साथ युद्ध होता है और छोटा बेटा शहीद हो जाता है। इसी बीच जीवन की जद्दोजहद से परेशान दंपती जीवन समाप्त करने का निर्णय लेते हैं। परंतु नाटक के अंत में वर्षों से उनके घर में काम कर रहे नौकर महादू के नवजन्मे बच्चे को देखकर उन्हें फिर से जीने की इच्छा पैदा होती है और उन्हें एक ज़रिया मिलता है फिर से खुश रहने का।

अकेलापन, ख़राब स्वास्थ्य और बच्चों से अलगाव एवं बूढ़े माता-पिता की हर छोटी बड़ी तकलीफ़ को संध्या छाया में बहुत ही मार्मिक ढंग से चित्रित किया गया है, और इसमें युवा पीढ़ी के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश दिया गया है।

निर्देशक सुदेश शर्मा का कहना है कि उन्होंने मराठी नाटककार जयवंत दलवी द्वारा लिखी गई इस कहानी को इसलिए चुना क्योंकि यह आज भी प्रासंगिक है,नाटक में भाग लेने वाले कलाकार सुदेश शर्मा, मधुबाला, नवदीप बाजवा, लवनीत कौर, अमृतपाल जस्सल, भूपिंदर कौर थे और मच परे – अंकुश राणा, भूपिंदर कौर, इशू बब्बर, हैरी, आलेख जयवंत दलवी, ट्रांसलेशन - कुसुम कुमारी, सह निर्देशन, सेट व प्रकाश व्यवस्था - हरविंदर सिंह, निर्देशक सुदेश शर्मा थे।

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हिन्दुस्थान समाचार / रामबहादुर पाल