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डॉ. सत्यवान सौरभ
हरियाणा की लोक संस्कृति में रागनी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यह न केवल मनोरंजन का माध्यम रही है, बल्कि सामाजिक संदेश देने, वीर रस जगाने और लोक इतिहास को संजोने का एक प्रभावशाली जरिया रही है। रागनी लोगों को बुराइयों के खिलाफ खड़ा करने का माध्यम भी रही है। इसके प्रचार-प्रसार में जाहरवीर कल्लू खां, अजीत सिंह गोरखपुरिया, दयाचंद लांबा, राजेंद्र खड़खड़ी, जसमेर खरकिया, सुरेंद्र भादू, सूरजभान बलाली, मामन खान, सतीश ठेठ, कविता कसाना के साथ-साथ और भी कई महान कलाकारों का योगदान रहा है। आज भी कई युवा कलाकार रागनी को आगे बढ़ा रहे हैं और इसे डिजिटल मंचों के माध्यम से नई ऊंचाइयों तक ले जाने का प्रयास कर रहे हैं। रागनी को जीवित रखने में संदीप सरगथलिया, वीर सिंह फौजी, धर्मवीर नागर, राजबाला, मास्टर छोटूराम बड़वा जैसे कई कलाकारों की महत्व पूर्ण भूमिका रही है। इनकी मेहनत और समर्पण से ही यह लोककला जीवित है, हालांकि इसे और संरक्षण और प्रोत्साहन की जरूरत है। संकट यह है कि आज यह धीरे-धीरे लुप्त हो रही है।
रागनी हरियाणवी लोकगीतों और कविताओं का एक विशिष्ट रूप है, जिसे मुख्य रूप से हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्सों में गाया जाता है। इसमें वीरता, प्रेम, भक्ति, सामाजिक मुद्दों और ऐतिहासिक घटनाओं का चित्रण किया जाता है। पहले यह कला अखाड़ों और मेलों में बहुत लोकप्रिय थी, जहां गायक अपनी आवाज और जोश के साथ लोगों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। रागनी के माध्यम से महिलाओं के अधिकारों, शिक्षा और समानता पर जोर दिया गया। कई लोकप्रिय रागनियों में बाल विवाह, दहेज प्रथा और महिलाओं पर अत्याचारों का विरोध किया गया है। बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ जैसे संदेशों को रागनी ने जन-जन तक पहुंचाया। हरियाणवी समाज में जातिगत भेदभाव को खत्म करने और समानता का संदेश देने में रागनी की महती भूमिका रही है। कई प्रसिद्ध रागनियों का संदेश है कि सभी मनुष्य समान हैं और कर्म को जाति से ऊपर रखना चाहिए। रागनी के माध्यम से शराब, जुआ और अन्य नशों की लत से बचने के संदेश दिए गए। मसलन- सुणले रे छोरे, बीड़ी-सिगरेट मत पीजा, तन्ने मां-बाप सूं किट्टे तै प्यारा..। हरियाणा की ग्रामीण जनता के लिए रागनी ताकत रही है। इसमें किसानों की समस्याओं और मजदूरों के अधिकारों को आवाज दी गई है।
ब्रिटिश राज के दौरान रागनी स्वतंत्रता सेनानियों के लिए एक प्रभावशाली हथियार बनी। लोकगायक अपनी रचनाओं के माध्यम से जनता में देशभक्ति की भावना भरते थे और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का आह्वान करते थे। आज के दौर में भी रागनी समाज सुधार का माध्यम बनी हुई है। डिजिटल मीडिया और मंचों पर युवा कलाकार सामाजिक मुद्दों पर रागनी प्रस्तुत कर रहे हैं। हरियाणवी लोक संस्कृति की पहचान रागनी समय के साथ लुप्त होती जा रही है। कभी चौपालों, मेलों और अखाड़ों में गूंजने वाली यह कला अब केवल कुछ पुराने कलाकारों और रसिकों तक सीमित रह गई है। इसके लुप्त होने के पीछे कई सामाजिक, सांस्कृतिक और तकनीकी कारण जिम्मेदार हैं। पहले के समय में गांवों में बैठकर बुज़ुर्ग अपनी अगली पीढ़ी को लोकगीत और रागनी सिखाते थे, लेकिन अब यह परंपरा समाप्त हो रही है। लोकगीतों और रागनी को नयी शैली में ढालने का प्रयास कम हुआ है, जिससे यह लोगों के लिए कम प्रासंगिक हो गई है। नवीन मनोरंजन साधनों टीवी, इंटरनेट और पॉप संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण युवा पीढ़ी लोककला से दूर होती जा रही है। आधुनिक संगीत उद्योग में रागनी को वह स्थान नहीं मिला जो अन्य संगीत शैलियों को मिला है। युवा पीढ़ी इसे करियर के रूप में अपनाने के लिए प्रेरित नहीं हो रही है। इस कला को संरक्षित करने के लिए कोई औपचारिक संस्थान या पाठ्यक्रम उपलब्ध नहीं हैं।
अगर रागनी को नए संगीत वाद्ययंत्रों और आधुनिक ध्वनि तकनीक के साथ प्रस्तुत किया जाए तो वह युवाओं को आकर्षित कर सकती है। हरियाणवी फिल्म और म्यूजिक इंडस्ट्री में रागनी को स्थान दिया जाए। रैप और हिप-हॉप जैसी आधुनिक शैलियों को मिलाकर फ्यूजन रागनी तैयार की जा सकती है। यदि समय रहते इसके संरक्षण के प्रयास नहीं किए गए, तो आने वाली पीढ़ियों को यह विरासत केवल किताबों में ही देखने को मिलेगी। स्कूलों और कॉलेजों में रागनी को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाकर इस कला का संरक्षण किया जा सकता है। विश्वविद्यालयों में इस पर शोध को बढ़ावा देने से भी रागनी का भला हो सकता है। बच्चों को पारंपरिक संगीत में रुचि दिलाने के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जा सकता हैं। सरकार और सांस्कृतिक संस्थानों को भी आगे आना होगा। यू-ट्यूब, पॉडकास्ट और सोशल मीडिया के माध्यम से इसे युवाओं तक पहुंचाया जा सकता है। रागनी केवल एक गीत शैली नहीं, बल्कि हरियाणा की संस्कृति की पहचान भी है।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद