बिहार के चुनाव में कब बनेगा विकास का मुद्दा?
मनोज कुमार मिश्र दिल्ली के बाद बिहार चुनावी अखाड़ा बन गया है। लोकसभा चुनाव के बाद पहले हरियाणा, महाराष्ट्र और फरवरी में दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा के हौसले बुलंद हैं। बावजूद इसके भाजपा बिहार में फिर से मौजूदा मुख्यमंत्री और जनता दल (एक
मनोज कुमार मिश्र


मनोज कुमार मिश्र

दिल्ली के बाद बिहार चुनावी अखाड़ा बन गया है। लोकसभा चुनाव के बाद पहले हरियाणा, महाराष्ट्र और फरवरी में दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा के हौसले बुलंद हैं। बावजूद इसके भाजपा बिहार में फिर से मौजूदा मुख्यमंत्री और जनता दल (एकी) के नेता नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर चुनाव लड़ने की तैयारी में है। भाजपा ने बिहार में छोटे-छोटे दलों के साथ चुनाव लड़कर देख लिया है। उसे अच्छी सफलता जद (एकी) के साथ लड़ने पर ही मिली। दूसरा बिहार के जातीय समीकरण में भाजपा को इस गठबंधन के साथ यानी राजग (राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन) के नाम से चुनाव लड़ने में राजनीतिक लाभ भी दिख रहा है। नीतीश कुमार भी भाजपा से उपकृत हैं। 2020 के चुनाव में ज्यादा सीटें लड़ने के बावजूद जनता दल (एकी) को भाजपा से काफी कम सीटें मिलीं। भाजपा ने बड़ा दिल दिखाते और चुनावी वादे के अनुरूप नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाया था। 243 सीटों वाली विधानसभा में जद (एकी) 115 सीटें लड़ कर 43 सीटें जीती जबकि भाजपा 110 सीटें लड़कर 74 सीटें जीती। सवाल यह इस बार के लिए महत्वपूर्ण है कि राजग के घटकों में कौन कितनी सीटें पाएगा और क्या ज्यादा सीटें लाकर भी भाजपा फिर से नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाएगी।

यह तो तय ही है कि पिछली बार की तरह इस बार भी मुख्य मुकाबला भाजपा, जद (एकी), चिराग पासवान की पार्टी लोजपा और जीतन राम मांझी की पार्टी हम आदि राजग के दलों और लालू यादव के पुत्र तेजस्वी यादव की राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस और महागठबंधन के दलों के बीच ही होना है। सीटों और तालमेल का जितना विवाद राजग में होने की आशंका है उससे कई गुणा विवाद महागठबंधन में होता दिख रहा है। अभी तो जिस तरह की पैंतरेबाजी राजद और कांग्रेस में चल रही है, उससे तो साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के वजूद पर ही सवाल उठने लगे हैं। 2020 के विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनाव में बिहार में इन दलों की हैसियत में काफी बदलाव आया। सत्ता में न आ पाने के बावजूद विधानसभा चुनाव में राजद को सबसे ज्यादा 75 सीटें मिली थी। लोकसभा चुनाव में राजग को 40 में से 30 सीटें मिली। उस चुनाव में भी महागठबंधन के दोनों बड़े दलों में तनातानी खूब हुई थी। राजीव रंजन उर्फ पप्पू यादव के लिए लालू यादव पूर्णिया की सीट छोड़ने को तैयार नहीं हुए। विपरीत परिस्थियों में पप्पू यादव ने बतौर बागी उम्मीदवार लड़कर वह सीट जीत ली। वे पहले भी काफी समय से लालू यादव और उनके लोगों के खिलाफ बोलते रहे हैं। लोकसभा चुनाव के बाद तो वे खुलकर खिलाफ बोलने लगे हैं।

दोनों दलों में विवाद का दूसरा नाम जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार का है। वे भाकपा की छात्र शाखा एआईएसएफ से भाकपा में आकर 2019 का लोकसभा चुनाव बिहार के बेगुसराय से लड़े। कहते हैं कि तब ही कांग्रेस नेता राहुल गांधी उन्हें अपनी पार्टी से उसी सीट से लड़ाना चाहते थे। उस चुनाव में कन्हैया कुमार को सफलता नहीं मिली। 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस में शामिल होने पर कांग्रेस उन्हें बिहार से चुनाव लड़वाना चाहती थी लेकिन लालू यादव के विरोध के चलते उन्हें दिल्ली उत्तर पूर्व सीट से चुनाव लड़वाया गया। उन्हें इस बार भी सफलता नहीं मिली। बावजूद इसके उन्हें दिल्ली विधानसभा चुनाव में सक्रियता से कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार किया। उसके तुरंत बाद उन्हें बिहार में सक्रिय किया गया। वे एनएसयूआई की पलायन रोको और नौकरी दो, पदयात्रा की अगुवाई कर रहे हैं। चुनाव की तैयारी शुरू करते ही कांग्रेस ने दलित विधायक राजेश कुमार को प्रदेश की बागडोर सौंपी है। कहा जाता है कि लालू यादव अपने गठबंधन में ऐसा कोई नेता स्वीकारने को तैयार नहीं हैं, जो मुख्यमंत्री के लिए उनके पुत्र तेजस्वी यादव की दावेदारी को चुनौती दे।

वैसे तो देशभर के चुनाव में ही जातीय समीकरण प्रभावी रहता है लेकिन बिहार तो जातिवाद और जाति के हिसाब से राजनीति के लिए शुरू से ही बदनाम रहा है। संख्या बल के हिसाब से ऊंची कहे जाने वाली (सवर्ण) जातियों की संख्या कम है इसलिए हर दल को फोकस पिछड़ी जाति, दलित और अल्पसंख्यक हैं। माना जाता है कि भाजपा के खिलाफ ही अल्पसंख्यक (मुसलिम) वोट डलते हैं लेकिन भाजपा के साथ चुनाव लड़ने पर भी उसके सहयोगी दलों को अल्पसंख्यकों के एक वर्ग का वोट मिल जाता है। यह भी माना ही जा रहा है कि करीब 20 साल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे नीतीश कुमार का यह आखिरी चुनाव है। वे खुद एक मजबूत पिछड़ी जाति से आते हैं। इतने लंबे समय तक सत्ता में रहने पर उन पर एक भी भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा। तमाम विरोध के बावजूद उनके शराबबंदी के फैसले का बड़ी तादाद में गरीब महिलाओं का समर्थन आज भी उन्हें मिलता है। उनकी लगातार होती जीत का एक आधार महिलाएं हैं। लालू यादव के जंगल राज से उलट उनकी छवि सुशासन बाबू की बनी हुई है। कई उल्लेखनीय काम उनके खाते में है लेकिन वे बिहार को विकास की दौड़ में शामिल करने में पूरी तरह से सफल नहीं हो पाए। न ही पलायन रुका और न ही बड़े पैमाने पर रोजराग के अवसर पैदा हुए। केन्द्र सरकार के सहयोग से हर गांव सड़क से जुड़ा। हर गांव में बिजली पहुंची। कई और केन्द्रीय योजनाओं का लाभ बिहार के लोगों को मिला। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का लाभ इस गठबंधन और खास करके भाजपा को होगा ही। अगर सीटों पर विवाद नहीं हुआ तो इस गठबंधन की राह ज्यादा कठिन नहीं है। नीतीश कुमार सरकार के राजगीर, नालंदा में हुए काम मील के पत्थर साबित हो रहे हैं। उम्र बढ़ने का उन पर हो रहे असर से उन्हें और उनकी सरकार का नुकसान हो रहा है। उनके हाल के कुछ बयान विवादास्पद रहे हैं। यह भी सत्य है कि शराबबंदी से राज्य के राजस्व का काफी नुकसान हुआ है और बड़ी मात्रा में बिहार में शराब की तस्करी हो रही है।

अभी हाल ही में एक जाति विशेष के गुंडों ने अलग-अलग स्थानों पर दो एएसआई की हत्या कर दी। कई और बड़े अपराध हुए। बावजूद इसके जिस बिहार ने लालू यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी का जंगल राज भोगा है, वे कानून व्यवस्था के नाम पर लालू यादव की पार्टी का साथ नहीं दे सकते। बिहार चुनाव में जातिवाद प्रभावी होता है इसलिए यादव बिरादरी का भरपूर समर्थन राजद को मिलेगा ही। उसी तरह कुर्मी वोटों का बड़ा हिस्सा जनतादल (एकी) का माना जाता है। बाकी पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में लाने की होड़ सभी दलों में लगी है। भाजपा ने पहले एक मजबूत पिछड़ी जाति के नेता सम्राट चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री बनाया, अब दूसरी पिछड़ी जाति के दिलीप जायसवाल को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया है। वैसे पढ़े-लिखे कद्दावर नेता सुशील कुमार मोदी के निधन के बाद उन जैसा दूसरे कद्दावर नेता की भाजपा को तलाश है। राजग के एक घटक के नेता उपेन्द्र कुशवाहा भी अपनी बिरादरी में बड़ी दखल रखते हैं। दलित वोटों के दावेदार दोनों ही गठबंधनों में हैं। भाजपा और जद(एकी) को दलितों के एक वर्ग का समर्थन मिलता ही रहा है। केन्द्रीयमंत्री चिराग पासवान और जीतन राम मांझी भी इस गठबंधन में दलित वर्ग को जोड़ते ही हैं। दलित वोटों में राजद और कांग्रेस की भी दावेदारी रहेगी। असली भिड़ंत तो अल्पसंख्यक वोटों पर होगी। अब तो बिहार की राजनीति में सवर्ण जातियों की दखलंदाजी लगातार घट रही है। बावजूद इसके लालू-राबड़ी राज में उन जातियों के दमन ने उन्हें राजद का स्थाई विरोधी बना दिया है। वैसे यह भी कम चौंकाने वाली जानकारी नहीं है उसी पार्टी के नेता रहे रघुबंश प्रसाद सिंह (अब स्वर्गीय) और जगदानंद सिंह को एक सवर्ण जाति का भरपूर समर्थन मिलता रहा है।

बिहार चुनाव अभी करीब छह महीने दूर है लेकिन वहां सत्ता के दावेदार अनेक बड़े दलों की सक्रियता लगातार बढ़ रही है। इस बार के केन्द्रीय बजट में भी केन्द्र की भाजपा की अगुवाई वाली सरकार का फोकस बिहार पर दिखा। देश के सबसे पिछड़े राज्यें में शामिल बिहार अब भी किसी बड़े चमत्कार के भरोसे है, जो उसे पिछड़े से विकास की दौड़ में शामिल करा दे। ''पलायन का प्रयाय बने बिहार में भरपूर रोजगार के अवसर दिलाकर पलायन पर रोक लगवा दे। बिहार में गुरुग्राम, फरीदाबाद, नोएडा और ग्रेटर नोएडा की तरह समृद्ध औद्योगिक नगरी बना दे''- लंबे समय से इसी मुद्दे पर अलख जगाने वाले जन सुराज पार्टी के प्रशांत किशोर के अभियान की भी इस चुनाव में परीक्षा होनी है। हाल ही के विधानसभा उपचुनाव में उनकी पार्टी को ढंग का समर्थन नहीं मिला। दावे चाहे जो किए जाएं लेकिन बिहार की सबसे बड़ी समस्या जातिवाद है। इस चुनाव में भी जातिवाद ही सबसे बड़ा मुद्दा रहने वाला है। अगर जातिवाद के बजाए विकास, रोजगार, शिक्षा आदि मुद्दे चुनाव तक मुख्य मुद्दे बन जाएं तो बिहार का कल्याण ही हो जाए और सालों से उस पर लगे गरीबी और पिछड़ेपन का ठप्पा हट जाए जाएगा।

(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद