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हृदयनारायण दीक्षित
प्रसन्नता की माप असंभव है। कोई साधारण व्यक्ति अपने घर, परिवार और पेशे से संतुष्ट है। वह गीत गाता मिलेगा। कोई व्यक्ति तमाम साधनों के बावजूद तनाव में है। वह अप्रसन्न दिखाई पड़ेगा। प्रसन्नता मापने का कोई उपकरण नहीं है। इसलिए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के वेल्बीइंग रिसर्च सेंटर की प्रसन्नता मापने की रिपोर्ट को पढ़कर मजा लिया जा सकता है। ऐसी रिपोर्ट्स हर साल जारी होती हैं। ताजा रिपोर्ट में पाकिस्तान को भारत की तुलना में ज्यादा प्रसन्न बताया गया है। सबकी खुशी अलग-अलग होती है। पाकिस्तान में सेना और आईएसआई सबको खुश रखती है। आतंकवाद का संरक्षण भी पाकिस्तान की खुशी का कारण हो सकता है। प्रसन्न और अप्रसन्न होने का कोई पैमाना नहीं है। प्रसन्नता को मापने के लिए 6 प्रमुख आधार बताए गए हैं। पहला सामाजिक सहयोग है। आय, स्वास्थ्य, स्वतंत्रता, उदारता और भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति भी आधार हैं। ताजा रिपोर्ट में फिनलैंड प्रथम है। डेनमार्क दूसरा है। तीसरा आइसलैंड है। रिपोर्ट में अफगानिस्तान को सबसे बुरा प्रदर्शनकर्ता बताया गया है। 147 देशों की सूची में भारत को 118वां स्थान दिया गया है। वर्ष 2022 में भारत 94वें स्थान पर था। रिपोर्ट की मानें तो भारत नेपाल, चीन जैसे पड़ोसी देशों से भी पीछे है। राष्ट्रीय प्रसन्नता सूचकांक की धारणा 1972 में भूटान से प्रारंभ हुई थी। वैश्विक प्रसन्नता के यह आंकड़े भारतीय परिस्थितियों में उचित नहीं जान पड़ते। भारत सभी क्षेत्रों में प्रतिष्ठित है और राष्ट्र के अभ्युदय के लिए प्रयासरत है। भारत स्वाभाविक रूप में प्रसन्न राष्ट्रीयता है।
प्रसन्नता भाव है। निस्संदेह आय आदि उपलब्धियां प्रसन्न होने का अवसर देती हैं। लेकिन सामान्य जरूरतों के आधार पर पूरे देश को प्रसन्न या अप्रसन्न नहीं कहा जा सकता। प्रसन्नता आंतरिक सुखानुभूति है। यह कार-बंगला जैसी उपलब्धि नहीं है। प्रसन्नता अस्तित्व की प्रीति का परिणाम होती है। ऋग्वेद में सोम देवता से की गई एक स्तुति में 'मुद मोद प्रमोद' एक साथ मांगे गए हैं। ऋषि कहते हैं, 'उन्हें ऐसे क्षेत्र में रहने का अवसर दें जहां मुद मोद प्रमोद एक साथ हों।' इसी स्तुति में वे जल भरी नदियों की भी प्रार्थना करते हैं और सुन्दर राजव्यवस्था की भी। फिर अन्न और दूध की भी स्तुति करते हैं। वे सारी दुनिया की प्रसन्नता चाहते हैं।
आवश्यक वस्तुओं का अभाव दुखी करता है। वैसे अभाव भी भाव है। प्रत्यक्ष जगत में अभाव कोई वस्तु या पदार्थ नहीं है। किसी वस्तु या पदार्थ का न होना अभाव कहा जाता है। वैशेषिक दर्शन में अभाव को भी एक पदार्थ माना गया है और उसके प्रभाव की चर्चा भी की गई है। सब प्रसन्न रहना चाहते हैं। अभाव दुखी करता है। लेकिन दुख का अभाव प्रसन्नता कहा जाता है। सुख का कारण दुख का अभाव भी हो सकता है। रिपोर्ट की माने तो भारत अतिक्षुब्ध अप्रसन्न देश है। प्रसन्नता के अवसर भारत में हैं ही नहीं। वैदिक ऋषि 100 वर्ष की स्वस्थ आयु चाहते थे। उन्होंने 100 वर्ष तक स्वस्थ रहने और प्रसन्न रहने की स्तुतियां की थीं। ईशावास्योपनिषद के पहले मंत्र में ही सतत् कर्म करते हुए 100 वर्ष के जीवन की प्रार्थना की गई है। प्रसन्नता के मानकों में स्वतंत्रता भी है। स्वतंत्रता आनंद के अवसर देती है। यहां के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और अंतःकरण व आस्था की भी। भारतीय संस्कृति दर्शन में प्रसन्न होना आध्यात्मिक भाव है। गीता में इच्छा शून्य चित्त दशा को महत्वपूर्ण बताया गया है। तैत्तिरीय उपनिषद में सुख और आनंद की गहन मीमांसा है। यहां आनंद के अनेक भौतिक स्रोत बताए गए हैं। गीत संगीत और कला भी आनंद के स्रोत हैं। ऐसे स्रोतों का उल्लेख करते हुए ऋषि कहते हैं, ''कामना शून्य ज्ञानी प्रसन्नता के वाह्य उपकरणों की तुलना में इच्छाशून्यता में सहस्त्रों गुना आनंद पाते हैं।''
सामूहिक जीवन की महत्ता वैदिक काल से ही है। सामूहिकता में प्रसन्नता का प्रसाद होता है। भारत में प्रतिपल उत्सव हैं। तमाम पर्व और त्यौहार हैं। तीर्थाटन हैं। उत्सव आनंदधर्म हैं। होली, दीपावली, विजयदशमी, बुद्ध पूर्णिमा, नागपंचमी, रक्षाबंधन जैसे सहस्त्रों उत्सव प्रसन्नता देते हैं। लेकिन यूरोपीय, अमेरिकी सरोकारों के चलते यहां भौतिक उपकरणों से प्रसन्न होने की आदत बढ़ रही है। कुछ लोग इसे आधुनिकता कहते हैं। विदेशी सभ्यता का अनुसरण आधुनिकता नहीं है। भारत की आधुनिकता प्राचीनता का ही विस्तार होनी चाहिए। उधर की आधुनिकता नहीं। प्रसन्न राष्ट्रीयता ने ही धरती से लेकर आकाश तक प्रसन्न होने के आलम्बन खोजे हैं। हम नदियां देखते हैं। चित्त प्रसन्न हो जाता है। अथर्ववेद के ऋषि को नदियां नाद करते दिखाई सुनाई पड़ती हैं। ऋषि नदी से कहते हैं, ''हे सरिता आप नाद करते हुए बहती हैं। इसलिए आप का नाम नदी है। आकाश में मेघ आते हैं। वे सुन्दर लगते हैं। प्रसन्न करते हैं। वर्षा आती है। प्रसन्न रस से भिगो देती है। पेड़ पौधे भी वर्षा से प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं।''
भारत स्वाभाविक रूप में प्रसन्न राष्ट्र है। ज्ञान प्रसन्न करता है। धर्म प्रसन्न करता है। ऋग्वेद के अनुसार राष्ट्र भी प्रसन्न करता है। कर्तव्य पालन में प्रसन्नता है। दुनिया को एक परिवार जानने का राष्ट्रभाव प्रसन्न करता है। इतिहासबोध में राष्ट्रीय गौरव के तमाम अमृत कथानक हैं। वे प्रसन्न करते हैं। जीवन के लिए मूलभूत आवश्यकताएं भी अनिवार्य होती हैं। वे कभी-कभी दुख देती हैं। लेकिन इनका अर्जन भी प्रसन्न राष्ट्रीयता के द्वारा ही होता है। परिवार प्रसन्न करता है। सुयोग्य पुत्र प्रसन्न करते हैं। विवाह प्रसन्न करता है। विवाह का अनुष्ठान बारात है। बारात प्रसन्न करती है। पिता का संरक्षण प्रसन्न करता है। पुत्र की प्रसन्नता प्रसन्न करती है। मां का आशीष प्रसन्न करता है। शुद्ध अंतःकरण प्रसन्न करता है। सांस्कृतिक संस्थाएं प्रसन्न करती हैं। वेद प्रसन्न करते हैं। उपनिषद प्रसन्न करते हैं। संविधान प्रसन्न करता है।
प्रकृति के सभी अंग आनंद से भरे पूरे हैं। जीवन का प्रत्येक क्षण प्रसन्नता का नाद है। अविरल प्रसन्नता हम सब का जन्मजात अधिकार है। दुनिया की किसी भी सभ्यता में प्रसन्न देवता नहीं दिखाई पड़ते। भारत में श्रीकृष्ण नाचते गाते देवता हैं। शिव स्वयं नाचते हैं और अपने गणों को नचाते हैं। वे गणों के साथ नाचते भी हैं। सोम भी नाचते हुए प्रवाहमान होते हैं। नाचते हुए शिव या श्रीकृष्ण जैसे देवता अन्य संस्कृतियों में नहीं है। वरुण, वायु, मरुद्गण आदि वैदिक देवता प्रसन्न ही दिखाई पड़ते हैं। प्रकृति प्रतिपल नई है। हम सब भी प्रत्येक क्षण नए हैं। वर्तमान नूतन है। हमारी आस्तिकता में प्रसन्नता अन्तर्निहित है। प्रकृति स्वयं प्रसन्न है और हम सबको प्रसन्न रखना चाहती है। प्रसन्नता हम सबको भीतर और बाहर से आच्छादित करती है। भारतीय धर्म दर्शन की आस्तिकता में प्रसन्नता के सूत्र हैं। यहां फल की इच्छा से रहित सतत् कर्म प्रसन्नता का मूलाधार है। परिणाम की इच्छा से रहित व्यक्तिगत और राष्ट्रीय कर्तव्यों का निर्वहन प्रसन्नता पैदा करता है। आशा प्रसन्न करती है। धैर्य प्रसन्न करता है। वैश्विक संगठनों की रिपोर्ट के निष्कर्ष यहां लागू नहीं किए जा सकते हैं।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद