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-ऋतुपर्ण दवे
अमेरिका में इस बार चुनाव के दौरान ही ट्रंप के आक्रामक तेवर बता रहे थे कि वो न केवल कुछ नया करेंगे बल्कि सभी राष्ट्रपतियों से बड़ी लकीर खीचेंगे। 13 जुलाई 2024 को उन्हें मारने की कोशिश के दौरान चली गोली ने पूरे चुनावी रुख को बदल डाला। मौत और ट्रंप के बीच का सेकेंड्स से भी कम का ये फासला ही कहीं उनके सख्त तेवरों की वजह तो नहीं? उनके मुंह से तब निकले- फाइट, फाइट, फाइट के शब्द अब हकीकत में दुनिया के लिए चुनौती बन रहे हैं। ट्रंप कड़े और बड़े फैसले लेकर सबसे ‘फाइट’ कर रहे हैं। क्या उनका दूसरा कार्यकाल अमेरिका और दुनिया में नया इतिहास रचेगा? सबसे ज्यादा परेशानी और हैरानी उनकी हालिया टैरिफ घोषणाओं से है जो दुनिया में चिंता का सबब है।
आखिर टैरिफ है क्या, जिससे ट्रंप की घोषणा के बाद बड़ा वैश्विक भूचाल आया हुआ है। यह दूसरे देशों से आयातित वस्तुओं पर लगाया जाने वाला टैक्स है। जिसका भुगतान आयातक करते हैं। किसी वस्तु पर 10 फीसदी टैरिफ का मतलब भारत से अमेरिका पहुंची 5 डॉलर की उस वस्तु पर 0.50 डॉलर का अतिरिक्त टैक्स है। इससे आयातित वस्तु का दाम बढ़ता है और खरीददार सस्ते घरेलू उत्पाद ढ़ूंढ़ने लगते हैं। नतीजतन आयात करने वाले देश को अपनी अर्थव्यवस्था बढ़ाने में सहयोग मिलता है लेकिन ट्रंप का नजरिया अलग है। वो इसे अमेरिकी अर्थव्यवस्था बढ़ाने, नौकरियों की रक्षा करने और कर राजस्व बढ़ाने के तौर पर देखते हैं।
दुनिया के अमीरों में शुमार दिग्गज निवेशक वॉरेन बफेट जिनके बारे में कहा जाता है कि वो दुनिया के शेयर बाजार की चाल को नियंत्रित करते हैं, वे भी ट्रंप के इस कदम से नाखुश हैं। बफेट टैरिफ नीतियों को युद्ध जैसा कदम मानते हैं। महंगाई और उपभोक्ताओं पर बोझ बढ़ने की आशंकाएं जताते हैं। इससे दीर्घकालीन अवधि में आर्थिक प्रभावों पर दुष्प्रभाव तथा आम उपभोक्ताओं पर बोझ बढ़ने की आशंका जताते हैं।
बफेट की टिप्पणी इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि वह ट्रंप के चीन, कनाडा और मैक्सिको पर टैरिफ बढ़ाने की घोषणा के बाद आई। इससे ग्लोबल ट्रेड वॉर और बढ़ा जो निवेशकों की गहरी चिंता का सबब है।
टैरिफ पर अमेरिका और चीन आमने-सामने हैं। चीन चेतावनी दे चुका है कि वो इससे निपटने के लिए तैयार है। चीन ने कह चुका है कि वह अमेरिकी दबाव का मुकाबला करेगा। चीनी वस्तुओं पर टैरिफ बढ़ते ही दुनिया की दो दिग्गज अर्थव्यवस्थाओं के मध्य व्यापार युद्ध के आसार झलकने लगे हैं। चीनी विदेश मंत्री वांग का बयान कि यदि कोई देश केवल अपने हित आगे बढ़ाने लगे तो दुनिया में जंगल का कानून लागू हो सकता है। उन्होंने याद दिलाया कि अमेरिका को फेंटेनाइल महामारी से निपटने में बीजिंग का सहयोग नहीं भूलना चाहिए। क्या वाशिंगटन इस उदारता का बदला अकारण टैरिफ बढ़ा ले रहा है?
सच है कि चीन लंबे समय से विश्व का कारखाना बना हुआ है। 1970 के आखिर में जैसे ही चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था दुनिया के लिए खोली तबसे सस्ते श्रम और बुनियादी ढांचे में सरकारी निवेश के चलते ऊंचाइयां छूता चला गया। शायद ट्रंप को यही चीनी सफलता चुभ रही हो। दुनिया की निगाहें ट्रंप के टैरिफ युद्ध खासकर चीन की मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री पर है कि उसे कितना नुकसान पहुंच सकता है।
दूसरी ओर ट्रंप इस बार अपने व्यापारी मित्रों, सहयोगियों और सलाहकारों से ज्यादा घिरे दिखते हैं। टैरिफ उनके इकोनॉमिक प्लान्स का हिस्सा है। इससे अमेरिकी मैन्युफैक्चरिंग और रोजगार बढ़ेंगे। गौरतलब है कि उनके खास मित्र एलेन मस्क भारत में संभावनाओं को खोज ही रहे थे कि ट्रंप की सत्ता वापसी हुई। माना कि मस्क की टेस्ला कार की कीमत एक करोड़ होगी उस पर भारत में उतना ही टैरिफ लगेगा जिससे यहां कीमत दो करोड़ हो जाएगी। यदि दबाव के चलते कहीं शून्य टैरिफ वाली स्थिति बनी तो वही कार एक करोड़ में भारत में मिलेगी। इससे भारतीय कार बाजार को जबरदस्त चुनौती तय है।
यकीनन बात बहुत बिगड़ चुकी है। भारत समझता है कि ट्रंप जब कनाडा, यूरोपीय देशों और चीन को नहीं बख्श रहे तो भारतीय हितों व सम्मान की रक्षा खुद करनी होगी। वहीं, ट्रंप ने अमेरिकी कांग्रेस के पहले संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए ऐतिहासिक भाषण दिया। इसमें भारत का नाम फिर उन देशों के साथ लिया जिन्होंने अपनी ऊंची शुल्क दर से नरम अमेरिकी नीतियों का फायदा उठाया। अमेरिका आगामी दो अप्रैल से इन देशों पर ‘जैसे को तैसा’ या 'आंख के बदले आंख' की तर्ज पर रेसिप्रोकल टैरिफ लगाएगा। जो देश जितना टैरिफ अमेरिकी कंपनियों पर लगाएगा, अमेरिका भी उतना ही अपने यहां लगाएगा। इससे भारतीय एक्सपोर्ट महंगा होगा। खाद्य पदार्थ, टेक्सटाइल्स, कपड़े, इलेक्ट्रिकल मशीनरी, जेम्स एंड ज्वेलरी, फार्मास्यूटिकल्स और ऑटोमोबाइल सामग्रियां अमेरिकी बाजार में महंगी होंगी। नतीजन भारतीय उत्पाद वहां अभी जैसे नहीं टिक पाएंगे।
1951 में अमेरिकी संविधान में 22वें संशोधन के बाद कोई भी व्यक्ति दो बार राष्ट्रपति रह सकता है। ट्रंप आखिरी टर्म में वो कर गुजरना चाहते हैं जो इतिहास बने। वहीं, उनके व्यापारी मित्र अपने व्यापारिक हितों में लिपटे दिखते हैं। ट्रंप की मंशा को समझना आसान भी नहीं क्योंकि वो खुद नहीं जानते कि अगले पल क्या कर गुजरेंगे?
जिद्दी ट्रंप किसी मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को नहीं मानते। न यही बताते कि पुराने अमेरिकी प्रशासनों ने ऐसे देशों को क्यों ऊंची दर से शुल्क लगाने दिया। हाल ही में व्हाइट हाउस में ट्रंप और यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की के बीच प्रेस कांफ्रेन्स के दौरान कैमरों पर जो अप्रिय विवाद दिखा, जिसकी हर तरफ निंदा हुई। शांति की कीमत के बदले ट्रंप की यूक्रेनी खनिज भंडारों पर कब्जे की मांग यकीनन निंदनीय है। ट्रंप की नीयत ही बदनीयत लगती है। कहीं वो दुनिया को नए ट्रेड वार में धकेल कर उससे भी कमाने का रास्ता तो नहीं खोज रहे?
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश