क्या ‘प्रधान पति’, ‘मुखिया पति’, ‘सरपंच पति’ की होगी छुट्टी?
प्रतिभा कुशवाह आधी आबादी की भागीदारी के बिना विकसित भारत का स्वप्न संभव नहीं है। महिलाएं देश की राजनीतिक व्यवस्था में भाग लें, इसके लिये त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में उनकी भागीदारी आरक्षण के द्वारा सुनिश्चित की गई। आज 33 से 50 फीसदी तक महि
प्रतिभा कुशवाहा


प्रतिभा कुशवाह

आधी आबादी की भागीदारी के बिना विकसित भारत का स्वप्न संभव नहीं है। महिलाएं देश की राजनीतिक व्यवस्था में भाग लें, इसके लिये त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में उनकी भागीदारी आरक्षण के द्वारा सुनिश्चित की गई। आज 33 से 50 फीसदी तक महिला आरक्षण राज्यवार दिया गया है। इसका उद्देश्य साफ था कि अंतिमजनों की आवाजों को प्रमुखता से सुनना। पर व्यवस्था की खामियों का क्या किया जाए, ये अपना रास्ता निकाल ही लेते हैं। आज इस त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की एक बड़ी समस्या ‘प्रधान पति’, ‘मुखिया पति’, ‘सरपंच पति’ बने हुए हैं। हालिया रिपोर्ट में भी यह समस्या उजागर की गई है कि कैसे महिला सरपंच के पुरुष प्रतिनिधि उनकी जगह पर काम कर रहे हैं। रिपोर्ट कहती है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और राजस्थान में प्राॅक्सी प्रतिनिधित्व की संख्या अन्य राज्यों की तुलना में कहीं ज्यादा है।

पिछले दिनों पंचायती राज मंत्रालय द्वारा पूर्व खान सचिव सुशील कुमार के नेतृत्व में गठित समिति ने एक रिपोर्ट मंत्रालय को पेश की है। इस समिति का गठन सितंबर, 2023 में किया गया था। ‘पंचायती राज प्रणालियों और संस्थाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व और भूमिकाओं को बदलनाः प्रॉक्सी भागीदारी के प्रयासों को खत्म करना’ शीर्षक वाली यह रिपोर्ट प्राॅक्सी प्रतिनिधित्व की बात जोर-शोर से उठाती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि गांवों में महिलाओं की पारंपरिक और सदियों पुरानी पितृसत्तात्मक मानसिकता और कठोर सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों को मनवाने से भी महिला प्रतिनिधित्व पीछे चला जाता है। इसमें एक है कई तरह की पर्दा प्रथाओं का पालन करना। रिपोर्ट में एक कारण राजनीतिक दबाव को भी बताया गया है, जिसमें राजनीतिक विरोधियों द्वारा मिलने वाली धमकी और दबाव भी है जिसे न मानने पर उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है।

इसके अतिरिक्त महिलाओं की घरेलू जिम्मेदारियों के कारण उन्हें सार्वजनिक कामों से खुद को अलग करने का दबाव भी रहता है। घर और बाहर दोनों जिम्मेदारियों के दबाव में वे अक्सर घर की जिम्मेदारियों को चुन लेती हैं। इसके अतिरिक्त बहुत बड़ा कारण उनका अशिक्षित रह जाना भी है। बहुत-सी सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों से महिलाओं को शिक्षा और सार्वजनिक कामों के अनुभव न हो पाने के कारण वे निर्वाचित होने के बावजूद अपनी भूमिका सीमित कर लेती हैं। सबसे ज्यादा उन्हें वित्तीय निर्णय संबंधी कामों में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है जिसकी वजह से वे संबंधित पुरुष साथियों की मदद लेने को मजबूर हो जाती हैं।

स्थानीय शासन में वास्तविक महिला नेतृत्व को मजबूत करने के मंत्रालय के लगातार प्रयासों के पक्ष में यह रिपोर्ट महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली है। इसकी वजह है कि इसमें न केवल वास्तविक समस्या की पहचान की गई है बल्कि समस्या का समाधान भी प्रस्तावित किया गया है। इस कड़ी में मंत्रालय द्वारा साल भर चलने वाला ‘सशक्त पंचायत नेत्री अभियान’ है, जिसे देश भर में पंचायती राज संस्थाओं की महिला प्रतिनिधियों की क्षमता और प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए बनाया गया है। यह पंचायती राज पदों पर निर्वाचित महिलाओं के कौशल और आत्मविश्वास के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करेगा। साथ ही यह सुनिश्चित करेगा कि वे अपने संवैधानिक अधिकारों और जिम्मेदारियों का प्रभावी ढंग से उपयोग कर रही हैं कि नहीं। इस रिपोर्ट में इस समस्या से निपटने के लिये कुछ सुधारात्मक दंड की सिफारिशें की गई हैं। ताकि प्रधान पति, सरपंच पति या मुखिया पति की प्रथा पर रोक लगाई जा सके।

देश की पहली एमबीए सरपंच राजस्थान के टोंक जिले से सोदा गांव की छवि राजावत थीं, जो 2010 में सरपंच बनीं और महिला सशक्तिकरण के लिये काम किया था। अपने एक लेख में कहती हैं कि मेरा केस अपवाद हो सकता है आज भी देश में बहुत-सी निर्वाचित महिला सरपंच शिक्षा और प्रशासनिक ढांचे के सामान्य ज्ञान की कमी से जूझ रही हैं। परिणामस्वरूप वे अलग-थलग पड़ जाती हैं। इस कारण उनकी छोड़ी गई जगहों को भरने के लिये संबंधी पुरुष आगे आ जाते हैं। कुछ मामलों में तो पुरुषों के सपोर्ट को निर्माण परियोजनाओं में मार्गदर्शन प्रदान करने या काम की निगरानी करने या फिर उन्हें सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से सही ठहराया जाता है। इस नेक इरादे के बावजूद यह प्रयास महिला आरक्षण के उद्देश्य को कहीं न कहीं नुकसान पहुंचाता है।

प्राॅक्सी प्रतिनिधित्व के कारणों को गौर किया जाये तो वे सभी वही कारण हैं जिनकी वजह से महिलाओं को घर के बाहर सार्वजनिक भूमिका को स्वीकारा नहीं जाता है। स्वीकारने से पहले उनकी सार्वजनिक भूमिका को ही नकारने की प्रवृत्ति रहती है, जो उनकी राह में कई तरह की बाधाओं के रूप में सामने आती है। पंचायती शासन प्रणाली को लागू हुए 31 वर्ष हो चुके हैं। महिला प्रतिनिधियों को किसी न किसी बहाने उन्हें उनकी पारंपरिक भूमिका में सीमित करने की मानसिकता में ऐसे ही किन्हीं सरकारी प्रयासों से कुछ संभव हो सकता है, यह आगे हम सबके सामने होगा।

(लेखिका, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

---------------

हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश