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हृदयनारायण दीक्षित
राजनीति को सांस्कृतिक मर्यादा में रहना चाहिए। मर्यादित राजनीति समाज को उत्कृष्ट बनाने में भी उपयोगी रहती है। संस्कृति विहीन अमर्यादित राजनीति तनाव पैदा करती है। भाषा सामाजिक एकता और सुख-दुख बांटने का उपकरण है। राष्ट्रजीवन के सभी व्यापारों के संचालन में भाषा की ही भूमिका है। भाषा पर राजनीति से राष्ट्रीय क्षति होती है। इसलिए भाषा को बांटने वाली राजनीति का हथियार बनाया जाना उचित नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य है कि तमिलनाडु में राष्ट्रभाषा हिन्दी के ही विरुद्ध टिप्पणियां की जा रही हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने धमकी भरे लहजे में कहा है, ''हिन्दी हम पर न थोपी जाए, वरना इसका अंजाम बुरा होगा।'' स्टालिन ने इसी बात को बार-बार दोहराया है। वे मर्यादा तोड़ रहे है। रुपया भारतीय मुद्रा है। मुद्रा का भारतीय प्रतिरूप प्रतीक 'रु' तमिलनाडु में भी जारी था। लेकिन राज्य सरकार ने उसे भी हटा दिया है। उत्तर दक्षिण की बातें भी चल निकली हैं। केन्द्र की तरफ से बार-बार स्पष्टीकरण दिया जा रहा है। लेकिन सतही राजनीति से वातावरण गरमा गया है। द्रविड़ और आर्य नस्ल की बातें भी चल निकली हैं। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से यह शुभ संकेत नहीं है। आर्य द्रविड़ नस्ल का सिद्धांत अनेक विद्वानों ने खारिज किया है। द्रविड़ और आर्य शब्द सामूहिक पहचान के संदर्भ में प्रयुक्त होते रहे हैं। कुछ यूरोपीय विद्वानों का विचार रहा है कि यह अलग-अलग रेस (नस्ल) हैं। एक विद्वान वीएस गुहा ने 'रेस एफिनिटीज ऑफ द पीपल ऑफ इण्डिया' नाम की पुस्तक लिखी थी। पुस्तक का विवेचन करते हुए सर आर्थर कीव ने लिखा था, ''सीमा प्रांत के पठानों और त्रावणकोर की वन्य जातियों को मिलाने वाला सेतु मौजूद है।'' विद्वान यह भी कहते रहे हैं कि भारत में दिखाई पड़ने वाली प्रजातिगत विविधताएं इस कारण हैं कि भारतीय जनता के सभी लोग भारत के बाहर से आए हैं। लेकिन किसी ने यह कोशिश नहीं की कि अनेक जातियों का विकास भारत में ही हुआ है।
आर्य भारत के ही मूल निवासी हैं। उन्हें विदेशी बताने का कार्य यूरोपीय साजिश थी। डॉ. आम्बेडकर ने आर्यों को भारत का मूल निवासी बताया है। उन्होंने लिखा है, ''आर्य भारत के ही मूल निवासी थे।'' डॉ. आम्बेडकर के अनुसार, ''आर्यों का मूल ग्रंथ ऋग्वेद है। ऋग्वेद में नदियों और प्रतीकों के उल्लेख में भारत के ही स्थल हैं। आर्य किसी और देश के होते तो नदियों और स्थान के नाम भारतीय न होते।'' यूरोपीय विद्वानों के अनुसार आर्य मध्य एशिया अथवा रूस के दक्षिण भाग में रहते थे। वह वहीं से भारत आए थे। यदि इस निष्कर्ष को सही मान लिया जाए तो प्रश्न उठता है कि आर्यों ने वेदों की तरह और कोई प्रामाणिक साहित्य अपने मूल देश के लिए क्यों नहीं लिखा? कुछ विद्वानों ने द्रविड़ों को भी बाहर से आने वाला बताया है। आर्यों की तरह द्रविड़ भी भारत के मूल निवासी हैं। सवाल यह भी उठाया जाता रहा है कि ऋग्वेद के रचनाकार आर्य भारत की नदियों को माता क्यों कहते हैं? किसी भी दूसरे देश से आया जनसमूह इस देश की नदियों को माता क्यों कहेगा? दर्शन, सभ्यता और संस्कृति पर वैदिक काल से लेकर पुराण काल तक विपुल साहित्य का सृजन हुआ है। इस पूरे साहित्य में कहीं आर्य आक्रमण के संकेत भी नहीं हैं। आर्यों के विदेशी होने का झूठ साम्राज्यवादी साजिश है।
आर्यों और द्रविड़ों के बीच कोई तनाव नहीं रहा। लेकिन स्वार्थी राजनीति द्रविड़ आर्य संघर्ष बताती रही है। 1939 में एक विद्वान जूलियन हक्सले ने कहा था, '' प्रजातिवाद का सिद्धांत झूठा है और खतरनाक भी है।'' रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार, आर्य शब्द का प्रयोग अंग्रेजी भाषा में सबसे पहले 1853 में मैक्समूलर ने किया था और 1939 में हिटलर ने प्रमाणित कर दिया कि आर्यों को प्रजाति मानने का सिद्धांत खतरनाक है। भारत को भी यह नहीं मानना चाहिए कि आर्य और द्रविड़ नाम की दो प्रजातियां हैं। मैक्समूलर ने बाद में अपनी गलती स्वीकार की और कहा, ''जब मैं 'एरियन' शब्द कहता हूं तब मेरा अभिप्राय न रक्त से होता है, न अस्थि, बाल और खप्पर से। मेरा तात्पर्य केवल उन लोगों से है जो आर्य भाषा बोलते हैं।'' द्रविड़ शब्द प्रजातिवाचक नहीं है। सम्भवतः यह स्थान वाचक शब्द है। दिनकर ने याद दिलाया है कि प्रजाति की यूरोपीय परिभाषा की दृष्टि से देखा जाए तो गुजरात और महाराष्ट्र में प्रधानता आर्य वंश की होनी चाहिए। लेकिन प्राचीन भारतीय यह नहीं मानते थे। द्रविड़ स्थान का विशेषण था। पंच द्रविड़ः में पुराण काल में द्रविड़, आंध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र व गुजरात इन पांच समूहों को गिनते थे। आर्यों और द्रविड़ों के बीच परस्पर प्रेम था। आर्यों की तरह द्रविड़ के ऋषि भी यज्ञ के पुरोहित होते थे। उन्होंने शास्त्रों की भी रचनाएं की थीं। तमिल के संगम साहित्य की रचना में भी बहुत ब्राह्मण विद्वानों ने सहयोग किया था। द्रविड़ संस्कृत का शब्द है। मनु ने द्रविड़ शब्द का प्रयोग द्रविड़ क्षेत्र के निवासियों के लिए किया है। कुमारिल भट्ट ने इसका प्रयोग भाषा की सूचना देने के लिए किया है। द्रविड़ों को अलग नस्ल या प्रजाति बनाने का काम यूरोपीय विद्वानों ने किया है।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने दिनकर की लिखी 'संस्कृति के चार अध्याय' पुस्तक की प्रस्तावना लिखी थी। लिखते हैं, ''सम्भावना यह है कि भारत में संस्कृति के सबसे प्रबल उपकरण आर्यों और आर्यों से पहले के भारतवासियों, खासकर, द्रविड़ों के मिलने से उत्पन्न हुए। इस मिलन, मिश्रण या समन्वय से एक बहुत बड़ी संस्कृति उत्पन्न हुई, जिसका प्रतिनिधित्व हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत करती है। संस्कृत और प्राचीन पहलवी, ये दोनों भाषाएं एक ही मां से मध्य एशिया में जन्मी थीं, किन्तु भारत में आकर संस्कृत ही यहां की राष्ट्रभाषा हो गई। यहां संस्कृत के विकास में उत्तर और दक्षिण, दोनों ने योगदान दिया। सच तो यह है कि आगे चलकर संस्कृत के उत्थान में दक्षिणवालों का अंशदान अत्यन्त प्रमुख रहा। संस्कृत हमारी जनता के विचार और धर्म का ही प्रतीक नहीं बनी, वरन भारत की सांस्कृतिक एकता भी उसी भाषा में साकार हुई। बुद्ध के समय से लेकर अब तक संस्कृत यहां की जनता की बोली जाने वाली भाषा कभी नहीं रही है, फिर भी, सारे भारतवर्ष पर वह अपना प्रचुर प्रभाव डालती ही आई है।'' नेहरू जी आर्यों को विदेशी मानते थे। सत्य यह है कि आर्य भारतीय ही थे। संस्कृति का विकास भारतवासियों ने किया। द्रविड़ सहित सभी जनों ने संस्कृति का संवर्द्धन किया है।
उत्तर दक्षिण की बातें करना खतरनाक है। भारतीय समाज के किसी भी छोटे या बड़े समूह के मध्य अलगाव सिद्ध करना सद्विचार नहीं है। भारत के सबसे बड़े दार्शनिक शंकराचार्य दक्षिण के ही थे और रामानुज भी। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी तमिलनाडु के ही थे। भारतीय दर्शन के व्याख्याता, दार्शनिक, राजनेता और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी तमिलनाडु के हैं। प्रख्यात वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम भी दक्षिण के ही थे। ऐसे सभी विद्वानों ने समूचे देश में व दुनिया के अन्य देशों में भी भारतीय दर्शन और संस्कृति को प्रभावित किया है। देश के कोने-कोने सभी वर्गों समूहों में इन महानुभावों का प्रभाव साफ दिखाई पड़ता है। भक्ति दर्शन का आदि क्षेत्र दक्षिण में ही था। हम सबको पूर्वजों पर गर्व होना चाहिए।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद