दिल्ली में भाजपा की जीत और आप की हार के सियासी मायने
कमलेश पांडेय दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में विगत 12 वर्षों से सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी यानी 'आप' की हार और प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा की जीत के सियासी मायने दिलचस्प हैं। इसके राजनीतिक असर भी दूरगामी होंगे। क्योंकि एक तरफ जहां भाजपा की जीत से केंद्
कमलेश पांडेय


कमलेश पांडेय

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में विगत 12 वर्षों से सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी यानी 'आप' की हार और प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा की जीत के सियासी मायने दिलचस्प हैं। इसके राजनीतिक असर भी दूरगामी होंगे। क्योंकि एक तरफ जहां भाजपा की जीत से केंद्र में सत्तारूढ़ 'एनडीए' की एकजुटता मजबूत होगी, वहीं देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन में बिखराव को बढ़ावा मिलेगा। ऐसा इसलिए कि इंडिया गठबंधन की अगुवा पार्टी कांग्रेस ने दिल्ली में अपने पूर्व गठबंधन सहयोगी 'आप', जो दिल्ली में लंबे समय से सत्तारूढ़ थी, उसे हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इससे कांग्रेस ने आप से जहां अपना पुराना सियासी हिसाब बराबर कर लिया, वहीं अपनी खोई राजनीतिक जमीन हासिल करने की दिशा में कदम बढ़ाए। अब उसमें इस बात की भी उम्मीद जगी है कि 2030 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में जब भाजपा से उसका सीधा मुकाबला होगा तो उसकी स्थिति और मजबूत होगी और उसका खोया जनाधार लौट जाएगा।

2010 के दशक के शुरुआती सालों में पूर्व नौकरशाह अरविंद केजरीवाल समेत 'आप' के कतिपय प्रमुख नेताओं के द्वारा लोकप्रिय समाजसेवी अन्ना हजारे को आगे करके 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' नामक एनजीओ के तत्वावधान में कांग्रेस की तत्कालीन डबल इंजन सरकार यानी मनमोहन सिंह सरकार और शीला दीक्षित सरकार के खिलाफ जो भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम चलाई गई, उससे 2013 में दिल्ली में 15 वर्षों से सत्तारूढ़ शीला दीक्षित सरकार और 2014 में केंद्र में 10 वर्षों से सत्तारूढ़ मनमोहन सिंह सरकार का सफाया हो गया था। एनजीओ के बैनर तले शुरू हुए इस आंदोलन की देशव्यापी लोकप्रियता से उत्साहित समाजसेवियों ने आम आदमी पार्टी यानी 'आप' का गठन कर दिल्ली विधानसभा चुनाव में दावेदारी पेश की। तब तक अन्ना हजारे की आड़ में अरविंद केजरीवाल ने अपनी सामाजिक आभा इतनी चमका ली थी कि उनकी नवगठित पार्टी 'आप' ने कांग्रेस की पूरी और भाजपा की कुछ-कुछ राजनीतिक जमीन हड़प ली।

यदि गौर किया जाए तो 2013 में जब आप ने धर्मनिरपेक्षता की आड़ में उसी कांग्रेस के सहयोग से भाजपा विरोधी गठबंधन सरकार का गठन किया, जिसका विरोध करके वह चुनाव जीती थी और त्रिशंकु विधानसभा की नौबत आई थी। कांग्रेस की इस एक मात्र भूल ने 2015 के मध्यावधि चुनाव में जहां उसका सफाया कर दिया, वहीं आप की ओर मुस्लिम मतदाताओं के बढ़े रुझान से उसे रिकॉर्ड जीत मिली। क्योंकि भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति देने के नाम पर दलितों, पिछड़ों और सवर्णों के अलावा पूर्वांचलियों और पहाड़ियों के साथ-साथ दिल्ली के पंजाबियों-बनियों ने भी आप का साथ दिया। इससे भाजपा भी भौंचक्की रह गई, क्योंकि 2014 में ही उसने पीएम मोदी के नेतृत्व में देश फतह किया था।

वहीं, 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी आप की लोकप्रियता थोड़ी कम हुई, लेकिन भाजपा और कांग्रेस के मुकाबले काफी ज्यादा रही। इसके बाद जब आप ने पंजाब में कांग्रेस को, दिल्ली नगर निगम चुनाव में भाजपा को जबरदस्त शिकस्त दी तो कांग्रेस किंकर्तव्यविमूढ़, लेकिन भाजपा चौकन्नी हो गई। क्योंकि अरविंद केजरीवाल ने यूपी, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा समेत अन्य राज्यों में भी अपने पांव पसारने शुरू कर दिए। उन्होंने 2023 में आप को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा भी दिलवा दिया। कांग्रेस, भाजपा और जनता पार्टी/जनता दल जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के बाद आप एक ऐसी पहली क्षेत्रीय पार्टी बनी जिसने एक के बाद दूसरे राज्य यानी दिल्ली के बाद पंजाब में भी अपनी पूर्ण बहुमत वाली सरकार बना ली।

इससे दूरदर्शी भाजपा नेतृत्व सजग हो गया। अरविंद केजरीवाल हर बात में उपराज्यपाल और प्रधानमंत्री को निशाना बनाते रहते थे। इस बीच लोकसभा चुनाव 2024 के पहले कांग्रेस के नेतृत्व में बने देशव्यापी इंडिया गठबंधन से जब आप की आंखमिचौली शुरू हुई, तो दिल्ली में कांग्रेस-आप में 4:3 का समझौता हो गया, जबकि पंजाब में दोनों में दोस्ताना मुकाबला हुआ। इसमें कांग्रेस ने आप को धो दिया और पंजाब में आप से दोगुनी सीट जीत ली। तभी यह तय हो गया कि आप को यदि अपनी राजनीतिक जमीन बचानी है तो कांग्रेस से दूर जाना होगा। दिल्ली विधानसभा चुनाव में यह हुआ तो जरूर, लेकिन यहां भी आप का दांव उलटा पड़ गया।

दरअसल, आप एक ऐसी पार्टी के रूप में उभर रही थी, जो भाजपा और कांग्रेस से इतर सभी व्यवहारिक मुद्दों में स्पष्ट नजरिया रख रही थी। लेकिन जब से वह भाजपा के निशाने पर आई, उसकी भी रीति-नीति बदल गई। उससे टक्कर लेने के लिए वह जिन थैलीशाहों की शरण में गई, वही आप को ले डूबे। शराब घोटाला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जब तक आप बिजली-पानी फ्री देने, स्कूल-अस्पताल को सुधारने आदि पर फोकस किया, तबतक लोकप्रिय बनी रही। लेकिन कोरोना काल की अवैध वसूली और अपनी कतिपय क्षेत्रवादी व अभद्र नीति से जहां वह जनता में अलोकप्रिय हुई, वहीं नीतिगत शराब घोटाले ने उसकी सरकार को ही जेल में डाल दिया। आप सरकार के मुख्यमंत्री की जेल यात्रा और पूर्व उपमुख्यमंत्री की जेल यात्रा तो महज एक बानगी रही, उसके अन्य मंत्री व सांसद भी भ्रष्टाचार के आरोप में जेल गए और बमुश्किल जमानत पर रिहा हुए।

उधर, भाजपा ने अरविंद केजरीवाल के शीशमहल, वायु प्रदूषण, यमुना जल प्रदूषण, दिल्ली के कुछ इलाकों के नारकीय हालात आदि पर इतना फोकस किया कि लोगों को यह महसूस हुआ कि दिल्ली में आप की सरकार के रहते दिल्ली का अब और विकास नहीं हो सकता। इससे पहले भी दिल्ली के विकास का सारा श्रेय शीला दीक्षित सरकार को जाता है। वहीं, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आप को दिल्ली के लिए 'आपदा' (आप-दा) करार दे दिया, क्योंकि यह सरकार विभिन्न महत्वपूर्ण केंद्रीय योजनाओं को दिल्ली में लागू ही नहीं होने देती थी। वहीं, कानून-व्यवस्था पर केंद्र सरकार को घेरती रहती थी, क्योंकि दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय के अंतर्गत होता है।

हालांकि, जब भाजपा ने आरएसएस के सहयोग से आप को दिल्ली की गली-कूची में घेरना शुरू किया, तब स्थिति बदलती। छठ पूजा के खिलाफ अरविंद केजरीवाल की सोच भी उनपर भारी पड़ी। कांग्रेस के खिलाफ सपा, तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना यूटीबी आदि का समर्थन भी आप को भारी पड़ा, क्योंकि इनकी पहचान मुस्लिम परस्त और देशद्रोही पार्टी की बनती जा रही है। वहीं, दिल्ली के दंगों को, शाहीन बाग जैसे धरनों और किसान आंदोलन जैसे महानगर विरोधी आंदोलनों को प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन देना भी अरविंद केजरीवाल की राजनीति को भारी पड़ी।

भाजपा ने दिल्ली के राजनीतिक दंश को दूर करने के लिए एक सुनियोजित रणनीति अपनाई, जिसमें हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र तक के अनुभवों को पिरोया। किसी भी व्यक्ति को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने की जगह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ना, वोट करना लोगों को अपील कर गया। वहीं, आप और कांग्रेस की तरह फ्रीबीज की बौछार करना भाजपा के लिए शुभ कारक रहा। क्योंकि लोगों ने मोदी की गारंटी को अहमियत दी। वहीं, बजट 2025-26 में मध्यम वर्ग को जो भारी कर राहत मिली, उससे बीजेपी के पक्ष में एक नई लहर पैदा हो गई। हालांकि, इस चुनाव में मध्यम वर्ग के मुद्दों पर प्रारम्भिक फोकस अरविंद केजरीवाल ने ही किया, लेकिन मतदान के ऐन मौके पर केंद्रीय बजट बाजीगरी दिखला कर मोदी मैदान मार ले गए और आप हाथ मलती रह गई।

दिल्ली की इस जीत का फायदा एनडीए गठबंधन को बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में भी मिलेगा। वहीं, कांग्रेस यदि समझदारी दिखाकर इंडिया गठबंधन को पुनः मजबूत बनाती है तो वहां भी कांटे की टक्कर होगी, अन्यथा नहीं। क्योंकि वहां भी नवगठित जनसुराज पार्टी के मुखिया प्रशांत किशोर के रुख पर यह निर्भर करेगा कि एनडीए या इंडिया गठबंधन में किसका पलड़ा भारी होगा।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश