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-प्रियंका सौरभ
कुछ लोग ह्यूमर के नाम पर समाज में गंदगी फैला रहे हैं। ऐसा कंटेट प्रसारित कर रहे हैं जो चिंता का विषय है। विवाद बढ़ने के बाद ये अश्लील इंफ्लूएंसर अपनी करतूत पर माफ़ी मांग लेते हैं। सवाल यह है कि क्या इनकी शर्मनाक हरकत पर इनका माफ़ी मांग लेना काफ़ी है या बड़ा एक्शन होना चाहिये? सुप्रीम कोर्ट ने यूट्यूबर रणवीर इलाहाबादिया की 'इंडियाज गॉट लैटेंट' पर 'आपत्तिजनक' टिप्पणियों की निंदा की।
ऐसे लोगों को कानूनी तौर पर तो सजा मिलनी ही चाहिए, अगर जनता गंदगी परोसने वाले ऐसे चैनलों और मंचों का बहिष्कार करना शुरू कर दे तो यह उनके लिए सबसे बड़ी सजा होगी। गंदगी परोसने वाले ऐसे सारे कार्यक्रम जो ओटीटी, टीवी आदि पर हैं, सब बंद होना चाहिए। ऐसा वल्गर कंटेंट हमारे देश की संस्कृति को तबाह कर देगी। यह निंदनीय है और सभ्य समाज के लिए ग़लत भी। ऐसे लोग सनातन धर्म और हिंद संस्कृति का बेड़ागर्क कर रहे हैं। ऐसी घिनौनी मानसिकता वाले लोगों को देखना व सुनना, आज के समाज का भी कसूर है। ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने रणवीर इलाहाबादिया के शब्दों के पीछे छिपे गहरे मुद्दों को उजागर करते हुए इसे उनके दिमाग़ की गंदगी कहा। इलाहाबादिया के शब्दों की निंदा करते हुए कहा कि उसकी भाषा से माता-पिता और बहनों को शर्म आएगी। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, इलाहाबादिया की टिप्पणियों की विकृत प्रकृति से पूरा समाज शर्मिंदा महसूस करेगा। यह मामला डिजिटल युग में प्रभावशाली व्यक्तियों और सामग्री निर्माताओं की जिम्मेदारी के बारे में व्यापक चर्चा को जन्म देता है। वैसे भी सार्वजनिक हस्तियों को अपनी भाषा के प्रयोग के प्रति सचेत रहना चाहिए क्योंकि इससे सामाजिक मूल्यों पर असर पड़ता है।
समाज पर ऐसे युवा प्रतीकों के प्रभाव को कम आंकना मूर्खतापूर्ण होगा, विशेषकर युवा मस्तिष्कों और स्वस्थ समाज की बुनियादी संस्कृति पर। क्या यह काफ़ी बड़ा नहीं है? यह पूछना कि शो का कोई प्रतियोगी किस चीज के लिए कितना शुल्क लेगा, क्या इससे युवाओं की एक पूरी पीढ़ी भ्रष्ट नहीं होगी? तर्कहीन ढंग से और समाज के प्रति किसी जिम्मेदारी के बिना कही गई बातें। क्या आपके बच्चे नहीं हैं और न ही आपको उनकी परवाह है। सच तो यह है कि 'मजाक' के माध्यम से ऐसी अश्लीलता को सामान्य बनाना उसी मानसिकता को बढ़ावा देता है जो वास्तविक अपराधों को बढ़ावा देती है। समाज रातोंरात नहीं तबाह होता -इसकी शुरुआत असहनीय को सहन करने, घृणित को सिर्फ हास्य के रूप में नजरअंदाज करने और धीरे-धीरे नैतिक सीमाओं को ख़त्म करने से होती है।
कानूनी कार्यवाही का मतलब सिर्फ़ व्यक्तियों को दंडित करना नहीं है। इसका उद्देश्य एक मिसाल क़ायम करना है कि कुछ चीजें स्वीकार्य नहीं हैं, चाहे लोग उन्हें कितना भी हास्यपूर्ण बताने की कोशिश करें। यदि वे सचमुच समाज को बेहतर बनाने के बारे में चिंतित हैं, तो उन्हें यह समझना चाहिए कि सांस्कृतिक पतन से लड़ना भी बड़े अपराधों से निपटने जितना ही महत्त्वपूर्ण है। यदि आप सोचते हैं कि हमें ऐसे घृणित 'मजाक' को नजरअंदाज कर देना चाहिए और केवल 'वास्तविक अपराधों' पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, तो आप यह समझने में विफल हैं कि समाज कैसे काम करता है।
विकृत और अपमानजनक हास्य को सामान्य मानने से नैतिक सीमाएँ कमजोर होती हैं और लोग अस्वीकार्य चीजों के प्रति असंवेदनशील हो जाते हैं। कॉमेडी में बिना किसी परिणाम के कुछ भी कहने की छूट नहीं है। खासकर तब जब यह बहुत ही विचलित करने वाले क्षेत्र में प्रवेश कर जाए। कानून गरिमा को बनाए रखने और बुनियादी शालीनता के क्षरण को रोकने के लिए मौजूद हैं। अगर आप 'यह सिर्फ़ एक मज़ाक है' के नाम पर इसका बचाव कर रहे हैं, तो शायद असली मुद्दा यह है कि आप इस तरह की सामग्री के प्रभाव के प्रति बेपरवाह हो गए हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ़ कानूनी कार्रवाई बहुत ज़रूरी है। आपका यह तर्क कि हमें 'मजाक के बजाय वास्तविक अपराधों और समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए' मूर्खतापूर्ण और अपरिपक्व दोनों है। हास्य में शक्ति होती है और शक्ति के साथ जिम्मेदारी भी आती है।
'मजाक' कहलाने वाली हर बात हानिरहित नहीं होती। कुछ हास्य हानिकारक व्यवहार को सामान्य बना देता है। यदि कोई मज़ाक अनादर, असंवेदनशीलता या नैतिक सीमाओं को लांघने पर आधारित है, तो यह सवाल उठाना उचित है कि क्या यह समाज का उत्थान करता है या पतन करता है। आलोचना का मतलब 'घटिया मानसिकता' रखना नहीं है; यह संस्कृति पर विषय-वस्तु के प्रभाव को पहचानने के बारे में है। यदि कॉमेडी पर सवाल नहीं उठाया जा सकता तो फिर वास्तव में संवेदनशील कौन है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ऐसी सामग्री का बचाव करना केवल यह साबित करता है कि समाज में क्या स्वीकार्य है, इसके प्रति लोग कितने असंवेदनशील हो गए हैं। स्वतंत्रता का अभिप्राय है, सही समय पर सही यानी नैतिक कार्य करने की स्वतंत्रता। इसी प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिप्राय है-उचित समय पर उचित बात कहने की स्वतंत्रता। इसके विपरीत कुछ भी, कभी भी कह देने की स्वतंत्रता, स्वच्छंदता है। स्वच्छंदता को ही अराजकता कहा जाता है। अतः स्वतंत्रता एक कानूनी प्रक्रिया है, इसके विपरीत स्वच्छंदता गैरकानूनी है।
अभिव्यक्ति की स्वच्छंदता को प्रश्रय, सोशल मीडिया की गुणवत्ता की जगह मात्रा को अहमियत देने की व्यवस्था ने दिया है। लोग ज़्यादा व्यूज के लिए सस्ती लोकप्रियता हासिल करना चाहते हैं। लोग किसी भी तरह से पैसा और शोहरत हासिल करना चाहते हैं और इस तरह की उत्तेजना पैदा करने वाली बातें युवा वर्ग को आकर्षित करती हैं। इसलिए लोग भद्दी भाषा का प्रयोग करते हैं। अगर यूट्यूब, मात्रा की अपेक्षा गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित करे तो ऐसे ओछे प्रयास बंद हो जायेंगे।
(लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश