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डॉ. प्रवीण गुगनानी
वनग्राम, वनों से सटे राजस्व ग्राम, जनजातीय समाज, वनों के भीतर कृषि का अधिकार, जनजातीय समाज को वनों के सीमित उपयोग की अनुमति आदि-आदि विषय मप्र में एक बड़ा सामाजिक सरोकार का प्रश्न रहे हैं। यह प्रश्न अब गहरा रहा है। मप्र सरकार कंपनी, संस्था, व्यक्ति या स्वयंसेवी संस्था को बिगड़े जंगल अनुबंध पर साठ वर्ष हेतु देने के प्रस्ताव पर विचाररत है। नई नीति में निजी क्षेत्र को विभाग के अनुसार नए पौधे लगाने होंगे। दो वर्ष में पौधे नहीं उगे तो अनुबंध समाप्ति का अधिकार शासन के पास सुरक्षित रहेगा। इन वनों का कार्बन क्रेडिट, वन विभाग के माध्यम से विक्रय करेंगे। इस नीति के अनुसार एक हजार हेक्टेयर तक के जंगल को यदि कोई निजी कंपनी विकसित करना चाहेगी तो वनों की पुनर्स्थापना का भी प्रावधान है। अनुबंधित वनों से प्राप्त वनोपज का पांचवां भाग वन समिति और शेष चार भाग वन विकास निगम और निजी कंपनी को मिलेंगे। फल वनोपज का आधा भाग निजी कंपनी को प्राप्त होगा।
मप्र में 37 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बिगड़े वन हैं, इसे ही निजी क्षेत्र में सौंपने की तैयारी है। नई नीति के अन्तर्गत निजी निवेशकों का इन वनीय क्षेत्रों की उपज व कार्बन क्रेडिट पर प्रथम अधिकार होगा। नई नीति का नाम “सीएसआर एवं कंपनी एन्वायरमेंट रिस्पांसिबिलिटी एवं अशासकीय निधियों के उपयोग से वनों की पुनर्स्थापना” है। इसके अंतर्गत मप्र में निजी निवेशक न्यूनतम दस हेक्टेयर वन का चयन कर सकेंगे।
नई वन नीति में कई विसंगतियाँ हैं, जिससे वनीय विविधता की हत्या हो जाएगी। जिस प्रकार समर्थन मूल्य के कारण मप्र व अन्य प्रदेशों की कृषि विविधता समाप्त हो गई है, उसी प्रकार वन विविधता समाप्त हो जाएगी। जब वनीय विविधता समाप्त होगी तो सर्वप्रथम वनीय जैव विविधता, बड़ी तीव्रता से समाप्त होगी। वनवासियों हेतु हर वृक्ष का हर उत्सव व ऋतु में अलग-अलग आस्था का सम्बंध होता है। हजारों-लाखों प्रकार के जीव-जंतुओं का भोजन, उनकी औषधियां, उनकी रहवासी आवश्यकताएँ सभी कुछ समाप्त हो जाएंगे। जीव-जंतु तो छोड़िए जनजातीय समाज और नगरीय समाज को मिलने वाली हजारों वनीय औषधियां, जड़ी-बूटियाँ, रसायन, मौसमी उत्पाद सभी कुछ समाप्त हो जाएँगे। प्रकृति की अविरल धारा के समक्ष एक बड़ा अवरोध व परिवर्तन उपस्थित होगा जिससे कई प्रकार की असंगतियाँ-विसंगतियाँ देखने को मिलेंगी। अनुबंध पर जंगल लेने वाले व्यसायी केवल लाभ से सरोकार रखेंगे। निजी वन व्यवसायी और कम्पनियाँ आदि; राष्ट्रीय, पर्यावरणीय, सामाजिक, धार्मिक विषयों के प्रति कोई सरोकार या संवेदनशीलता रखने से तो रहे। व्यावसायिक लाभ ही एकमेव लक्ष्य होगा, इससे वनोपज में असंतुलित वृद्धि तो हो सकती है किंतु पर्यावर्णीय हानि, जैव व वन विविधता की हानि व वनवासी समाज के साथ शासन व शेष समाज के सम्बंध बिगड़ सकते हैं। नई वन नीति की सम्पूर्ण समीक्षा की आवश्यकता है। या तो यह नीति रद्द हो या फिर इस नीति में वनीय, विविधता, जैव विविधता, जलीय सरंचनाओं, वनीय पशु-पक्षियों की आवश्यकताओं, वनवासी बंधुओं की आजीविका आदि विषय में सुरक्षा की गारंटी हो।
नई वन नीति में जिसे “बिगड़े वन” कहा जा रहा है, उसकी परिभाषा भी तय नहीं है। ग्राम सभा की अनुमति की शर्त भी बड़ी ही आसान व एक औपचारिकता मात्र है। केवल मूल्यवान लकड़ी प्रदान नहीं करने वाले वनों को बिगड़ा हुआ वन मान लेना एक बड़ी प्रदूषित, शोषक, स्वार्थी व एकपक्षीय नीति है। वनवासी बंधुओं की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक आवश्यकताओं एवं पर्यावरण को दृष्टिगत रखते हुए वनीय विविधता बनी रहे, यह परम आवश्यक है। इस नई वन नीति से हमारी आने वाली पीढ़ियाँ कई वन उत्पादों के केवल नाम ही सुन पाएगी। आज जिस प्रकार कृषि क्षेत्र में केवल दो चार प्रकार के अन्न का उत्पादन हो रहा है व शेष फसलों का उन्मूलन होता जा रहा है, वही स्थिति वनों में भी देखने को मिलेगी। प्रत्येक ऐसे वृक्ष को जिससे आर्थिक लाभ नहीं होता है या कम लाभ होता है, उसे कुल्हाड़ी की बलि चढ़ाकर वहाँ व्यावसायिक लाभ की दृष्टि से मूल्यवान पेड़ लगा दिए जाएँगे। लाभमात्र के मूलमंत्र से पारिस्थितिकी संतुलन व इको सिस्टम समाप्त होगा। वनों में ये कंपनियां बेतहाशा इको टूरिज़्म को बढ़ावा देंगी, यह लाभप्रद तो अवश्य ही होगा किंतु इसके गंभीर साइड इफ़ेक्टस भी हो सकते हैं। आशंका है कि वनों को लेकर अंधाधुंध दोहन की या केवल लाभ की नीति से पर्यावरण असंतुलन उत्पन्न हो सकता है।
वर्ष 2020 में मुख्यमंत्री शिवराज चौहान के समय भी इस प्रस्ताव को लाया गया था जो बाद में फाइलों में बंद हो गया। फ़ाइलों में बंद इस जिन्न को मप्र वन विभाग के नौकरशाहों ने पुनः बाहर निकाला है। यद्यपि यह मध्यप्रदेश की डॉ. मोहन यादव सरकार की संवेदनशीलता ही है कि सरकार ने अभी एकतरफा निर्णय नहीं लिया है तथापि मुख्यमंत्री को जनजातियों के प्रति असंवेदनशील, वन नीति से सावधान रहना होगा। मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में कुछ ही दिन पहले एक टास्क फोर्स की मीटिंग हुई थी, जिसमें वन अधिकार कानून के तहत ग्राम सभाओं को अपने परंपरागत वन क्षेत्र के पुनर्निर्माण, संवर्धन, संरक्षण एवं प्रबंधन के अधिकार देने का निर्णय हुआ था। संभवतः इसी को ध्यान में रखकर मुख्यमंत्री ने इस वन नीति के प्रारूप को अभी सहमति नहीं दी होगी। मप्र शासन ने नई वननीति के संदर्भ में apccfit.mp.gov.in पर जनता से सुझाव व आपत्तियाँ माँगी हैं। सभी पर्यावरणविदों को सुझाव देना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि शासकीय आय बढ़ाने के इस उपक्रम को वन शोषण का धत्कर्म बना दिया जाए। वन विकास के नाम पर कहीं हमारे वन, व्यवसाइयों व दलालों की भेंट न चढ़ जाएँ। मप्र की जनता से प्राप्त होने वाले सुझावों और आपत्तियों को देखते हुए नीति में वांछनीय परिवर्तन या संपूर्णतः अस्वीकृत भी किया जा सकता है। मप्र की भाजपा सरकार की ओर से यह शुभ संकेत है और एक अवसर भी। वस्तुतः स्टेट फॉरेस्ट रिपोर्ट 2023 में यह निष्कर्ष था कि मध्यप्रदेश, 97 हजार वर्ग किमी वनक्षेत्र वाला देश का सबसे बड़ा राज्य है। इसमें यह तथ्य भी उभरकर आया था कि 2021 की तुलना में 2023 में मप्र में 612 वर्ग किमी जंगल कम हो गए हैं।
मप्र में चालीस प्रतिशत से कम घनत्व वाले वनों को बंजर भूमि या ओपन फॉरेस्ट कहा गया है। इस वनभूमि को ही निजी क्षेत्रों में देना प्रस्तावित है। मप्र सरकार का लक्ष्य इस बंजर भूमि पर वनक्षेत्र बढ़ाना है। किंतु इस लक्ष्य के पीछे कहीं उद्योगपति इनका शोषण न करने लग जाएँ। इस हेतु शासकीय व सामाजिक विजिलेंस का एक बड़ा नेटवर्क निर्मित करना होगा। ग्राम समितियों को नई नीति में शासन की आँख, कान, नाक बनाकर सोशल विजिलेंस का नया उदाहरण समूचे देश के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रस्तावित ड्राफ्ट के पहले भाग में सीएसआर और सीईआर (कॉर्पोरेट एन्वायरमेंट रिस्पांसबिलिटी) निधि से वन विकास का उल्लेख है। दूसरे भाग में निजी निवेश से ओपन फारेस्ट के विकास का लक्ष्य है। यह ड्राफ्ट रोजगार सृजन, राजस्व की सृजन आदि विषय में भी अस्पष्ट है।
एक सुझाव यह भी है कि नई वन नीति समूचे मप्र हेतु एक जैसी न बने। इस नीति को क्षेत्रवार, भौगोलिक विशेषताओं, विशिष्टताओं, वनीय बंधुओं की आवश्यकतानुसार, वनीय बंधुओं की परंपराओं आदि को ध्यान में रखकर वनीय बंधुओं के रोजगार सृजन के लक्ष्य, वनवासी बंधुओं के विस्थापन-स्थापन की सधी हुई दृष्टि से निर्मित करना होगा। मप्र की नई वननीति व्यवसाय नहीं अपितु वनवासी समाज केंद्रित हो, यह ध्यान में रखना ही होगा।
(लेखक, जनजातीय विषयों के विशेषज्ञ हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश