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-डॉ. दीपक आचार्य
वर्तमान में व्याप्त सभी प्रकार की समस्याओं, संत्रासों, पीड़ाओं और अभावों का मूल कारण प्रकृति के प्रति हमारी खुदगर्जी भरी विकारी मनोवृत्ति है। इस बात को प्रत्यक्ष तौर पर कोई भले स्वीकार न करें, लेकिन सत्य यही है।
पंचतत्वों से निर्मित जीवों का सर्वोपरि धर्म प्रकृति की रक्षा के लिए समर्पण है। लेकिन हम विकास की दौड़ और समृद्धि पाने की आतुरता में प्रकृति के शोषण को इतना अधिक अपना चुके हैं कि कुछ कहा नहीं जा सकता।
मनुष्य की प्रतिस्पर्धी तमोगुणी दुष्प्रवृत्ति के कारण पैदा हो रहे परिवेशीय संकटों से मुक्ति पाने के लिए सतोगुणी वृत्ति को विकसित किया जाना आज की प्राथमिक आवश्यकता है। तभी वन एवं वन्य जीवों को संरक्षित कर सुरक्षित जीवन प्रदान किया सकता है, जिससे हम पर्यावरण को शुद्ध बना सकते हैं।
मानव की रजो एवं तमो गुणी मानसिकता तथा आर्थिक वृत्ति के कारण वह वन्य एवं वनों को नष्ट करने में परहेज नहीं करता, इसलिए हमें अपने आपको सत्त्व गुणी बनाने की जरूरत है, ताकि हम पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में ईमानदारी से कार्य कर सकें। वर्तमान समय में पर्यावरण संरक्षण सबसे बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने विद्यमान है। हम सभी इंसानों को वैयक्तिक सोच के साथ प्रकृति और परिवेशीय तमाम कारकों के प्रति संवेदनशील कर्त्तव्य भावना का ख्याल रखते हुए सामूहिक सोच के साथ इस दिशा में आगे आना होगा।
भयावह होगा प्रकृति का प्रकोप
पर्यावरण के दूषित होने से मनुष्य का जीवन खतरे में पड़ता जा रहा है। इस बारे में अभी गंभीरता से नहीं सोचा गया तो आने वाला समय अत्यन्त और अपरिहार्य भयावह परिस्थितियों से साक्षात् कराने वाला हो सकता है। इसके संकेत कुछ वर्ष से दिखाई देने लगे हैं।
प्राचीन समय में पेयजल एवं वन संरक्षण के लिए प्रकृति को ही परमेश्वर मानकर पूजा की जाती थी तथा उनके रखरखाव के लिए लोग स्वयंस्फूर्त भावना से आगे आकर सहभागिता निभाते हुए प्रसन्नता एवं आत्मतोष का अनुभव करते थे। इसी का परिणाम है कि आज तक हम शुद्ध पर्यावरण का सुकून लेते आ रहे हैं। लेकिन यह स्थिति लम्बे समय तक चलने वाली नहीं रहने वाली।
प्रकृति पूजा और पर्यावरण संरक्षण के प्रति हमारी आस्थावादी पुरातन सोच को फिर से जागृत कर सुनहरा आकार देने की आवश्यकता है। तभी हम इस विषय पर सार्थक परिणाम अर्जित कर सकेंगे।
जनजागृति का संचार हो
आज स्वार्थ के वशीभूत होकर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन निर्मम एवं असीम शोषण के स्तर तक पहुंच चुका है। इस स्थिति में वन सम्पदा एवं वन्य जीवों के संरक्षण के प्रति आम जनमानस को जागृत करने की जरूरत है।
धरती पर इंसान यदि जिन्दा रहा चाहता है तो उसे पर्यावरण के प्रति चिन्तन करते हुए अपने फर्ज निभाने ही होंगे, अन्यथा जब कभी प्रकृति कुपित होकर रौद्र रूप दिखाने अपनी औकात पर आ जाएगी तो उससे होने वाले विनाश को कोई रोक नहीं पाएगा।
समय आ गया है कि पर्यावरण संरक्षण एवं वन संवर्धन के चिन्तन को हमारी प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखें और इस क्षेत्र में पूरी शक्ति एवं सामर्थ्य से जुटते हुए परिवर्तन लाएं।
आज मशीनीकरण के कारण पर्यावरण इतना दूषित होता जा रहा है कि इसका दुष्परिणाम आने वाली पीढ़ी को भोगना ही पडे़गा। ऐसे में अधिक से अधिक पौधारोपण, पूर्व से स्थापित वृक्षों एवं वनों का संरक्षण तथा बहुआयामी प्रदूषण को रोकने के उपायों में अभी से जुटना होगा। वर्तमान युग की हम इंसानों से यही अपेक्षा है।
मानवीय अपेक्षाओं पर खरे उतरें
धरती माता पर जो जीव जन्तु एवं वृक्ष पैदा हुए हैं, उन सभी को मानव जाति से ही अपेक्षा है कि वह उनकी रक्षा करे और उनके जीवन निर्वाह में किसी भी प्रकार की बाधाएं न आने पाएं। जन, जंगल एवं वन्य जीव एक दूसरे के पूरक हैं, इसलिए इन्हें बचाए रखना प्रत्येक मानव का दायित्व है।
वृक्ष हमारे मित्र हैं एवं ये कमाऊ पूत की तरह ही रक्षण करते हैं। इसलिए इन्हें अपने पुत्र की तरह पालन-पोषण करना चाहिए। जल, वन एवं वन्य जीव मानव विकास के मूल तत्त्व हैं। इन्हें संरक्षित करना हमारा परम धर्म है।
आज इस विषय पर गंभीरता से चिन्तन मनन नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब हमारा साँस लेना भी मुश्किल हो जाएगा, जीवन का आधार प्राणवायु ही हमारे भाग्य से दूर हो जाएगा। वन लगाकर ही इस पर्यावरण को शुद्ध बनाया जा सकता है।
धरातलीय नैष्ठिक प्रयास बिना सफलता असंभव
धरती के प्रत्येक प्राणी को यह संकल्प लेने की आवश्यकता है कि हर साल कम से कम एक पेड़ लगाकर उसका सुरक्षित पल्लवन करे। वृक्षारोपण के नाम पर साल भर में हरित उत्सव, हरियाली उत्सव, पर्यावरण दिवस और अनेक आयोजन होते रहते हैं और इनमें पेड़ लगाए भी जाते हैं। लेकिन बाद में उनका किस तरह से ख्याल रखा जाता है, इस बारे में किसी को कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है।
यही कारण है कि इतने वर्षों से चलाए जा रहे अभियानों के बावजूद कुछ ख़ास बदलाव नहीं आ पाया और आज भी हमें पर्यावरण के लिए दिवस, उत्सव मनाने की आवश्यकता बनी हुई है।
नौटंकियों से ऊपर उठना होगा
पौधारोपण के नाम पर पब्लिसिटी फोबिया से ग्रस्त पर्यावरण प्रेमियों की हमारे देश में कहीं कोई कमी नहीं है। पर्यावरण संरक्षण के पुरस्कारों की दौड़ में भी खूब सारे वृक्षप्रेमियों का तांता लगा रहता है। इनमें से कितने लोग धरातल पर वास्तविक कार्य कर रहे हैं, इस बारे में सभी जानते हैं।
पर्यावरण संरक्षण-संवर्धन और वृक्षारोपण से जुड़े आयोजनों का अधिकांश समय उपदेशात्मक भाषणबाजी और पेड़ लगाने के आह्वानों-अपीलों में ही जाया हो जाता है। जबकि इनमें भाषणबाजी और मंचीय-लंचीय नौटंकी में समय जाया करने की बजाय पेड़ लगाने का काम ही होना चाहिए।
स्थानीय प्रजातियों का पौधारोपण ही उपयोगी
जहाँ-जहाँ पौधारोपण के अभियान चलाए जाएं, वहाँ-वहाँ स्थानीय प्रजातियों के परम्परागत और प्राचीन वृक्षों को लगाने का कार्य होना चाहिए, न कि वृक्षारोपण के लक्ष्यों को दिखाने के लिए उन पेड़-पौधों को लगा दिया जाए, जो कि जल्दी-जल्दी बड़े होते हैं।
देश के कई हिस्सों में वन विभाग और दूसरी एजेंसियों ने सफेदा (यूकेलिप्ट्स), विलायती बबूल और दूसरे पौधे इसलिए लगा दिए, ताकि इनकी तेज वृद्धि दर से हरियाली को दर्शाया जा सके। लेकिन इनका नुकसान यह हुआ कि ऐसे पौधों से भूमिगत जल अधिक सोखा जाकर वाष्पीकृत हुआ और पानी का अकाल तक देखा गया।
आस्थावादी मानसिकता का समावेश
प्रभावी
पर्यावरण संरक्षण के लिए देव वन और ओरण पद्धति को भी संरक्षित, विकसित एवं विस्तारित किए जाने की आवश्यकता है। तभी आम जन का जुड़ाव और अधिक बढ़कर पर्यावरण संरक्षण को नए एवं प्रगतिकारी आयाम प्रदान कर सकेगा।
पर्यावरण संरक्षण के लिए हमें वाहनों के उपयोग को सीमित रखने के लिए आत्म अनुशासन को भी अपनाना होगा। इससे प्रदूषण कम होगा। इस दिशा में सामूहिक प्रयासों को अभियान के तौर पर लिए जाने और ईमानदारी से काम करने की आवश्यकता है।
(लेखक, सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के पूर्व संयुक्त निदेशक हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / रोहित