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डॉ. विपिन कुमार
दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों ने न सिर्फ भविष्य की राजनीति की दिशा को स्पष्ट किया, बल्कि कुछ अहम मुद्दों पर जनता की राय को भी उजागर किया। एक प्रमुख संदेश यह है कि संविधान को लेकर भाजपा पर आरोप लगाने और उसे बदलने या अनदेखा करने का दुष्प्रचार अब असरदार नहीं रह गया है। इस नैरेटिव का उद्देश्य दलित-पिछड़ों को भाजपा से दूर रखना था, लेकिन नतीजों से स्पष्ट है कि कांग्रेस इसमें असफल रही।
आरक्षित सीटों के परिणामों में भी महत्वपूर्ण संकेत छिपे हैं। दिल्ली की 12 आरक्षित सीटों में से आठ पर आम आदमी पार्टी और चार पर भाजपा ने जीत दर्ज की। यह दिखाता है कि दलित समाज में कांग्रेस का संविधान का रक्षक होने का दावा प्रभावी नहीं हुआ। राहुल गांधी ने बार-बार संविधान की प्रति लहराकर इसे मोदी सरकार के खिलाफ एक बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की, लेकिन यह रणनीति मतदाताओं को प्रभावित करने में विफल रही।
दिल्ली में मुस्लिम प्रभाव वाली करीब एक दर्जन सीटों पर भी रोचक बदलाव देखने को मिला। जंगपुरा में मनीष सिसोदिया की हार से साफ है कि मुस्लिम बहुल सीटों पर आप की पकड़ पहले जैसी नहीं रही। भाजपा ने मुस्तफाबाद और करावल नगर में जीत दर्ज कर यह दिखाया कि मुस्लिम मतदाता भी उसके प्रति नरम हो रहे हैं। हालांकि, अधिकांश मुस्लिम मतदाता अब भी आप के साथ रहे।
कांग्रेस के लिए यह चुनाव एक और झटका साबित हुआ। उसे महज 6.48% वोट मिले, जो पिछले चुनाव की तुलना में थोड़ा बेहतर था, लेकिन सीटों के लिहाज से फिर भी शून्य पर ही अटकी रही। हालांकि, कांग्रेस के आक्रामक प्रचार ने केजरीवाल विरोधी माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अलका लांबा के बयान को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा कि दिल्ली में उनका नुकसान हुआ है, जिन्होंने दिल्ली का नुकसान किया।
केजरीवाल का वह बयान, जिसमें उन्होंने मोदी को हराने के लिए उनके दूसरा जन्म लेने की चुनौती दी थी, अब बेमानी हो गया है। तीन बार से देश की सत्ता में काबिज मोदी को दिल्ली में इस बार बड़ी सफलता मिली। दिलचस्प यह है कि इस जीत में कांग्रेस की अप्रत्यक्ष भूमिका भी रही। हालांकि, यह इतिहास में दर्ज होगा या नहीं, कहना मुश्किल है।
‘संविधान खतरे में है’ वाला नैरेटिव इस चुनाव में नहीं चला, लेकिन कांग्रेस शायद ही इस मुद्दे को छोड़ने वाली है। राहुल गांधी का रुख दर्शाता है कि वह अपनी रणनीति से हटने वाले नहीं, चाहे परिणाम कुछ भी हों। दिलचस्प यह भी है कि केजरीवाल ने कुछ समय पहले सभी मुख्य विपक्षी दलों से कांग्रेस के विरोध में खड़े होने की बात कही थी। अब उनकी पार्टी की हार से गठबंधन की एकजुटता पर और असर पड़ेगा। पहले से ही कमजोर विपक्षी गठबंधन में, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी और शरद पवार जैसे नेताओं ने कांग्रेस की जगह आप को तरजीह दी थी। अब, जब आप खुद मुश्किल में है, तो यह इंडी गठबंधन और बिखर सकता है।
आम आदमी पार्टी की हार असम गण परिषद् की याद दिलाती है, जो 1985 में आंदोलन से उभरी थी, लेकिन महज दो कार्यकाल के भीतर अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करने लगी। वहां आंतरिक कलह के कारण पार्टी कमजोर हो गई थी। आम आदमी पार्टी के लिए भी यह खतरा मंडरा रहा है, खासकर पंजाब में। वहां के आप नेता यह सवाल उठा सकते हैं कि आखिर वे ऐसे नेता के नेतृत्व में क्यों रहें, जो अपनी सीट और सरकार, दोनों नहीं बचा सका। अब देखना होगा कि आम आदमी पार्टी असम गण परिषद् की तरह हाशिए पर चली जाती है या फिर कोई नई राह तलाशती है। संभावना यह भी है कि पार्टी के भीतर केजरीवाल के नेतृत्व को चुनौती दी जाए, खासकर पंजाब में, जहां केजरीवाल की पकड़ दिल्ली जितनी मजबूत नहीं है।
(लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश