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गिरीश्वर मिश्र
राजनैतिक गतिविधियों को जानता-परखता जन-समुदाय अपने आप को शिक्षित-प्रशिक्षित भी करता चलता है। ऐसे में वादों, नारों, गारंटियों और संकल्पों को लेकर सतही राजनैतिक प्रचार का अर्थ भी जनता को धीरे-धीरे ही सही समझ में आने लगता है । भरोसे का संकट कुछ इतना बढ़ गया है कि अब जनता संदेश देने वालों की विश्वसनीयता और वैधता को सुनिश्चित करने की कोशिश करती है और उसके बाद ही स्वीकार करती है। दूसरे शब्दों में राजनीति के मैदान में अंतत: पार्टी और नेता की साख ही निर्णायक सिद्ध होती है। दिल्ली में हुई उठापटक यह बखूबी दिखा रही है कि सतही राजनीति जो झूठे सपनों और भ्रमों की बैसाखी पर टिकी हो ज्यादा दिन नहीं चल पाती है । दिल्ली विधानसभा के ताजे चुनावी परिणाम विस्मयजनक हैं और बहुत कुछ कह रहे हैं। ये परिणाम सिर्फ सरकार के बदलाव यानी सत्ता-परिवर्तन को हो इंगित नहीं कर रहे बल्कि भारतीय लोकतंत्र की राजनीतिक संस्कृति के उतार-चढ़ाव की अंतर्निहित प्रवृत्तियों को भी रेखांकित कर रहे हैं ।
समय गवाह है कि देश की प्राचीनतम पार्टी कांग्रेस दिल्ली में विधानसभा हो या लोकसभा किसी भी चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज कर पाने में तीन-तीन बार लगातार असफल होती रही । कभी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने देशभक्ति के मूल्यों के साथ अस्तित्व में आई थी। परतंत्र भारत को अंग्रेजों से आजादी दिलाने के प्रयास में वह मुख्य भूमिका में रही थी। इसका ही सुफल था कि 1947 में स्वतंत्र होने के बाद आधी सदी से कुछ अधिक समय तक कांग्रेस का भारत में अबाध शासन चलता रहा। उसे जनता ने सिर आंखों पर धारण किया। परिस्थितियां बदलीं और कांग्रेस की अपनी आंतरिक सत्ता की लड़ाई और विभिन्न मोर्चों पर असफलता के चलते उसे सत्ता से बेदखल होना पड़ा। आज की स्थिति यह है कि कांग्रेस जीवित तो है पर उसका दम-खम जाता रहा। नए कांग्रेसी नेतृत्व और अन्य विपक्षी दलों द्वारा वर्तमान सत्ता पक्ष पर किस्म-किस्म के तमाम आरोप लगते रहे हैं। अन्य दलों के साथ जुड़ कर कांग्रेस की अगुवाई में इंडी नाम से एक विरोध-मंच भी सक्रिय किया गया। चुनावी हार होने पर निर्वाचन आयोग और ईवीएम को लेकर खासतौर पर पेश की जाने वाली अनर्गल शंकाओं का एक स्थायी राग चलता रहा। इस चुनाव में भी यह सब कहा जाता रहा पर किसी काम नहीं आया । यह खेदजनक है कि पार्टी के लोक-लुभावन वादों के बावजूद दिल्ली चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवारों की जमानत अधिकांश सीटों पर जप्त हो गई । दल का यह खराब प्रदर्शन स्पष्ट रूप से उसकी रीति-नीति और विचारधारा को प्रश्नांकित करता और जनता की अस्वीकृति को ही जताता है। दिल्ली के राजनीतिक पटल पर कांग्रेस की गैर मौजूदगी भारी विफलता ही कही जाएगी। इस दयनीय अवस्था पर कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को गंभीरतापूर्वक सोचने की जरूरत है । एक सजग और मजबूत विपक्ष लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।
दूसरी कहानी आम आदमी पार्टी (आआपा) की है। भारत के सामाजिक - राजनैतिक क्षितिज पर उभरने वाला नवीनतम राजनीतिक दल आआपा जन्म महाराष्ट्र के किसान गांधीवादी अन्ना हजारे के साथ ईमानदारी की स्थापना की जद्दोजहद के बीच यहीं दिल्ली की जनता के मध्य हुआ था। एक जन आंदोलन के दौरान आआपा का उभार हुआ और बेहतरीन ढंग से आगाज भी हुआ । इसके बहुत पढ़े-लिखे और अफसर रह चुके नेता जिसने स्वच्छ प्रशासन और आम जन को राहत देने के लिए खुद को समर्पित किया था। अपने हाव-भाव तथा वेष-भूषा से वे अपने को आम जन के करीब पेश करते रहे थे । शुरू में अनेक बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्य से जुड़े प्रतिष्ठित लोग इससे जुड़े। पार्टी ने पंजाब में उपस्थिति दर्ज की और सरकार बनाने में कामयाब रही । धीरे-धीरे दृश्य बदला और पार्टी दूसरी पार्टियों के नक्शे कदम पर चलने लगी। बहुत सारे लोग (मूल सहयोगियों) ने इससे अपने सम्बन्ध तोड़ लिया। पार्टी की मूल प्रकृति उलट पलट गई । इसके नेता कुछ इस तरह के कारनामों में संलिप्त होते रहे कि उन्हें जेल जाना पड़ा पर वे जेल से शासन करने पर अड़े रहे । पूर्व मुख्यमंत्री सहित अनेक वरिष्ठ मंत्री और सहयोगी लोगों को मुंह की खानी पड़ी है।
आआपा अभूतपूर्व जन समर्थन के साथ आई थी और अपनी ईमानदार, स्वच्छ और जन हितकारी छवि के विज्ञापनों से उसने दिल्ली की सड़कों को पाट दिया था । मोहल्ला क्लीनिक, शिक्षा सुधार और पानी , बिजली और परिवहन की नागरिक सुविधाओं को लेकर दिल्ली सरकार के फैसले और आयोजन जिसमें ''मुफ्त'' पर बड़ा जोर था लोकप्रिय बनाए गए पर धीरे-धीरे वे सब कमजोर साबित होते गए । उल्टे विकसित हो रहे भारत की राष्ट्रीय राजधानी की मुश्किलें पिछले दशक में बढ़ती ही गईं और आआपा की सरकार कुछ नेताओं की अपनी सरकार हो गई । व्यापक जनजीवन को यह सब रास नहीं आया । कथनी-करनी के बीच का फर्क और जनता को बांट कर राजनैतिक लाभ कमाने का पैतरा काम न आया । ''सब कुछ फ़्री'' करने और ऊपर से रुपया देने के वादे ने पोल खोल दी । पिछले दिनों चुनावी प्रचार में जिस किस्म से अकूत वादे हर दिन होते रहे उससे लोगों में इन वादों की हकीकत को लेकर शुबहा हुआ कि आखिर इतने सारे पैसे आएंगे कहां से । तब बड़े आत्मविश्वास के साथ यह कहा गया, ''चिंता क्यों करते हो, मैं तो वणिक्पुत्र हूं और साधन कहां से लाऊंगा यह सब मुझ पर छोड़ दें''। यह सब आआपा के नेताओं को आत्मविश्वास बढ़ाने वाली तरकीब लग रही थी पर ऐसा हो न सका । ताजे चुनाव में आआपा ने भी अपनी मौलिक रौनक और आभा खो दी ।उसे करारी हार का सामना करना पड़ा।
गौरतलब है कि महानगर दिल्ली का पिछले तीन चार दशकों में निरंतर बेतहाशा विस्तार हुआ है। इसकी जनसंख्या में अपार वृद्धि हुई है। फलत: इसकी जरूरतों में बड़ा इजाफा हुआ है और व्यवस्था की मांग तीव्र होती गई। दुर्भाग्य से इसके लिए संसाधन जुटाने और जरूरी व्यवस्था करने को लेकर सरकार की गंभीरता अनुपस्थित रही है । सरकारी वरीयताएं व्यापक सरोकारों के प्रति संवेदनशील न होकर उदासीन ही रही हैं। राजनीतिक सफलता के लिए केंद्र सरकार की आयुष जैसी योजनाओं को नहीं अपनाया गया। कुल मिला कर केंद्र सरकार और दिल्ली जी आआपा सरकार के बीच तालमेल कम रहा। ऐसी स्थिति में दिल्ली की स्थिति लगातार बद से बदतर होती गई। बिगड़ती स्थिति को नजरअंदाज करते हुए वोट बटोर सरकार पर कब्जा कर लेने की कोशिश होती रही। इतने भर से कुछ न होने वाला था। गंदा नाला बनी पावन यमुना की स्थिति दयनीय होती गई, वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच गया। शुद्ध पेयजल की बेहद कमी, लोक परिवहन की असुविधा, जल निकासी की अर्याप्त व्यवस्था, लचर कानून व्यवस्था, कूड़े के निस्तारण की अपर्याप्त व्यवस्था और दिल्ली के हर कोने पर ऊपर उठते कूड़े के पहाडों का खड़े होना, यमुना के जल का विषैला होना, खस्ता हाल सड़कें, दुर्बल वर्ग के आवासों की कमी और शिक्षा तथा स्वास्थ्य से जुड़ी विभिन्न नागरिक सुविधाओं की बदहाली से सरकारी बदइंतजामी ही झलकती रही।
भारत देश की राजधानी को कला, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान का केंद्र बन कर विश्व के सम्मुख उदाहरण बनना चाहिए । यहां का बड़ा पुराना इतिहास है। इधर दिल्ली की सीमाओं का सतत विस्तार हुआ है । यह विशेष और सुखद संयोग ही कहा जाएगा कि दिल्ली और उसके आसपास के राज्य यानी राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश सब जगह भाजपा की सरकारें है । इसलिए दिल्ली को उसका गौरव दिलाने में कोई बाधा नहीं आनी चाहिए ।दिल्ली की जनता ने बड़े भरोसे और विश्वास के साथ भाजपा के हाथ में कमान देने का निश्चय किया है । उनका यह निर्णायक कदम उस छटपटाहट का परिणाम है जो यहां की जनता ने सालों साल अनुभव किया है । भाजपा के उम्मीदवारों को चुनना और सरकार बनाने का अवसर देना उस लोकतांत्रिक जन आकांक्षा की अभिव्यक्ति है जो भ्रष्टाचारमुक्त शासन और सुशासन की नीति पर लोकल कल्याण के लिए समर्पित सरकार देखने के लिए तत्पर थी । निश्चय ही अमृतकाल में विकसित भारत-1947 के स्वप्न के साथ अग्रसर हो रहे भारत की जनता सरकार की ओर से अच्छे बर्ताव की हकदार है।
(लेखक,महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद