प्रयागराज महाकुंभः सामाजिक समरसता के साथ भारतीय चिंतन की वैज्ञानिकता का प्रतीक
- रमेश शर्मा प्रयागराज में विश्व का सबसे बड़ा मेला महाकुंभ आरंभ हो रहा है। मेले में भारतीय समाज जीवन के उस मूलतत्व के दर्शन होते हैं जो सामाजिक समरसता और संपूर्ण भारत राष्ट्र की एक सूत्र बद्धता में निहित है। इसके साथ तिथि निर्धारण में भारत की समृद्
रमेश शर्मा


- रमेश शर्मा

प्रयागराज में विश्व का सबसे बड़ा मेला महाकुंभ आरंभ हो रहा है। मेले में भारतीय समाज जीवन के उस मूलतत्व के दर्शन होते हैं जो सामाजिक समरसता और संपूर्ण भारत राष्ट्र की एक सूत्र बद्धता में निहित है। इसके साथ तिथि निर्धारण में भारत की समृद्ध विज्ञान परंपरा की स्पष्ट झलक मिलती है।

प्रयागराज में इस वर्ष यह महाकुंभ 14 जनवरी से आरंभ हो रहा है और 26 फरवरी तक 45 दिन चलेगा। कुंभ मेला प्रयागराज के अतिरिक्त हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में भी आयोजित होता है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर आयोजित होने वाले कुंभ के बीच तीन वर्षों का अंतर होता है। जबकि एक ही स्थान पर दोबारा कुंभ आयोजन में बारह वर्ष का अंतर होता है। इस प्रकार प्रयागराज में यह कुंभ बारह वर्ष बाद आयोजित हो रहा है। पूजन अनुष्ठान के बाद औपचारिक शुभारंभ 14 जनवरी मकर संक्रांति से होगा पर संत समाज और अखाड़े समय से पहले पहुँच गये हैं। उनके पाँडाल सज गये हैं। भारत के प्रत्येक क्षेत्र और परंपरा के संत प्रयागराज पहुँच गये हैं।

प्रयागराज में पिछला महाकुंभ 2013 में हुआ था। इस बार पिछली बार की तुलना में कम-से-कम चार गुना अधिक तीर्थ यात्रियों के आने की संभावना है। तैयारी इसी संभावना को ध्यान में रखकर की जा रही है। तीर्थ यात्रियों की यह संख्या बढ़ने का कारण अयोध्या में रामलला के अपने जन्मस्थान पर विराजमान होना माना जा रहा है। इसके बाद भारत के सभी धार्मिक स्थलों में श्रद्धालुओं की बढ़ी है। अनुमान प्रतिदिन एक करोड़ श्रद्धालु प्रयागराज महाकुंभ में आ सकते हैं। यह महाकुंभ पूरे विश्व में विशेष आकर्षण का केन्द्र है। इसमें भारत के अतिरिक्त विदेशों से भी बड़ी संख्या में श्रद्धा अथवा कौतुहल से आते हैं। इनमें समाज के प्रत्येक वर्ग से होते हैं। सामान्य जन, एवं साधु-संत के अतिरिक्त नृत्य, संगीत, साहित्यिक और शोधकर्ता भी होते हैं। सभी वर्गों की सभाएं भी होती हैं, सैकड़ों पांडाल तो कथा एवं प्रवचन के होते हैं। हजारों दुकानें लगती हैं।

इसी सबको ध्यान में रखकर संगम के किनारे तैयारी की गई है। लगभग चार हजार हेक्टेयर से भी अधिक क्षेत्र मेले केलिये सुरक्षित किया गया है। इस वर्ष मेला तैयारी के लिये 6,382 करोड़ रुपये का बजट है। पूरे क्षेत्र में पाइप लाइन बिछाकर पेयजल की व्यवस्था, सुरक्षा व्यवस्था तथा तंबू आदि पर व्यय होना है। गुप्तचर विभाग के संकेत के बाद इस वर्ष महाकुंभ सुरक्षा के लिये अतिरिक्त और अत्याधुनिक व्यवस्था भी गई है। तीर्थ यात्रियों की सुविधा का भी पिछली बार की तुलना में अधिक साधन उपलब्ध कराये जा रहे हैं। इसे मेले के लिए की गई पेयजल आपूर्ति व्यवस्था से समझा जा सकता है। पेयजल आपूर्ति के लिए मेला क्षेत्र में 1249 किलोमीटर पाइप लाइन बिछाई गई है। 200 वाटर एटीएम और 85 वाटर पंप इसके अतिरिक्त हैं। राजमार्गों पर सात हजार बसें चलाई जा रही हैं। मेले के भीतर भी 550 शटल बसों की व्यवस्था की गई है। प्रयागराज विमानतल का भी नवीनीकरण हुआ है। एक नई टर्मिनल बिल्डिंग और विमानों के पार्क होने वाले परिक्षेत्र का भी विस्तार हुआ। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मेले की व्यवस्था में व्यक्तिगत रुचि ले रहे हैं। लगभग दो वर्षों से मेला क्षेत्र में व्यवस्था बनाना आरंभ कर दिया गया था। जैसे-जैसे तिथियाँ समीप आईं वैसे-वैसे उनकी प्रयागराज यात्रा बढ़ी। अभी हाल ही बीते दिसम्बर माह में ही मुख्यमंत्री ने चार यात्राएँ कीं।

तिथि निर्धारण में वैज्ञानिकता

प्रयागराज सहित चारों स्थानों पर आयोजित होने वाले कुंभ की तिथियों का निर्धारण यूँ ही नहीं होता । यह अंतरिक्ष में सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की स्थिति के अनुसार होता है । गुरु जब कुंभ राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करते हैं तब हरिद्वार (उत्तराखंड) में, सूर्य एवं गुरू जब सिंह राशि में होते हैं तब नासिक (महाराष्ट्र) में, गुरु जब कुंभ राशि में प्रवेश करते है तब उज्जैन (मध्यप्रदेश) में और जब गुरु मेष राशि में हों, एवं चन्द्रमा के साथ सूर्य मकर राशि में प्रवेश करें तब प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) में कुंभ का आयोजन होता है । भारत के इतिहास में जहाँ तक दृष्टि जाती है, कुंभ के आयोजन का संदर्भ मिलता है। मौर्यकाल में भी और शुंग काल में भी। गुप्तकाल में तो कुंभ का बहुत विस्तार से वर्णन मिलता है। गुप्तकाल के इस विवरण में ग्रहों की स्थिति के अनुसार कुंभ के आयोजन का उल्लेख है। यदि गुप्तकाल को ग्रह नक्षत्र के अनुसार कुंभ का आरंभ मान लिया जाय तो यह अपने आप प्रमाणित है कि लगभग डेढ़ हजार वर्ष पूर्व भी भी भारत मनीषियों का अंतरिक्ष विज्ञान बहुत उन्नत और व्यापक था। भारतीय चिंतकों द्वारा डेढ़ हजार पूर्व ग्रहों की गति और तिथि गणना कितनी सटीक थी वह आज के आधुनिक विज्ञान के निष्कर्ष से मेल खाती है। जबकि सोलहवीं शताब्दी तक पूरी दुनियाँ ग्रहों के ज्ञान से अपरिचित थी। यदि गैलीलियो और ब्रूनों ने अंतरिक्ष विज्ञान के बारे में कुछ शोध परक बात बताई तो गैलीलियो को जेल और ब्रूनों को मौत की सजा दी गई थी। जबकि भारत में अंतरिक्ष विज्ञान की झलक वेदों में भी मिलती है। उसका ध्यान समाज जीवन में कितना व्यापक था, इसे कुंभ की तिथियों के निर्धारण की गणना से समझा जा सकता है। बृहस्पति एक राशि लगभग एक वर्ष रहते हैं। सभी राशियों में भ्रमण करते हुये उन्हें पुनः उसी राशि में लौटने में 12 वर्ष लगते हैं। इसलिए एक स्थान पर कुंभ के पुनः आयोजन में बारह वर्ष लगते हैं। कुंभ तिथि निर्धारण का यह सिद्धांत स्पष्ट करता है कि भारत में केवल सूर्य, चंद्रमा या पृथ्वी का ही नहीं अंतरिक्ष जगत के अन्य ग्रहों की सटीक जानकारी थी ।

सामाजिक समरता का प्रमाण

भारतीय समाज रचना का मूल स्वरूप कैसा है इसकी झलक भी कुंभ मेले में मिलती है। यद्यपि हमलावरों ने भारत पर अपनी विजय के लिये विभाजन की नीति अपनाई थी। सिकन्दर के आक्रमण से सल्तनतकाल तक राज्यों के विभाजन की नीति और अंग्रेजीकाल में जाति विभाजन की नीति बनाई। अंग्रेजीकाल के इस षड्यंत्र को आज भी हम सरकारी नीतियों और राजनीति की राहों में देख सकते हैं। लेकिन भारतीय समाज जीवन कितना समरस है इसका दर्शन भारत के किसी भी तीर्थस्थल और महाकुंभ में देखा जा सकता हैं। वर्ष 2013 में संपन्न प्रयागराज महाकुंभ में लगभग बारह करोड़ श्रद्धालुओं ने गंगाजी और संगम में स्नान किया था। इनमें भारत के प्रत्येक समाज वर्ग के लोग थे। इसमें धनी लोग भी थे और निर्धन भी, वनवासी भी थे और ग्रामवासी भी। नगरवासी भी थे और विदेशी भी, सबने एक-दूसरे को सहयोग करके डुबकी लगाई थी। ऐसे सैकड़ों हजारों लोग थे जिन्होंने अपरिचित का हाथ पकड़ कर उसे डुबकी लगवाई थी। किसी ने किसी से जाति नहीं पूछी, नाम-पता नहीं पूछा। किसी के झलकती अमीरी या गरीबी देखकर मुँह न फेरा। सबने हँसते-हँसाते भजन गाते या हर-हर गंगे का उद्घोष करते हुये डुबकी लगाई थी। विशेष पर्व के दिनों जब घाटों पर भीड़ बढ़ जाती है तब किनारे पर पंक्ति बनाकर श्रद्धालुओं को रोका जाता है। सब एक पंक्ति में होते हैं। कोई किसी से उसकी जाति नहीं पूछता। कुंभ मेले में सैकड़ों हजारों दुकानें लगतीं हैं। आधी से अधिक तो खाने-पीने और प्रसाद की वस्तुओं की होती हैं। पर भोजन सामग्री भी बिना किसी पूछताछ के प्रसाद खरीदकर भगवान को अर्पण होती है और अपने घर लाकर पड़ोसियों और शुभ चितकों में वितरित की जाती है। भारतीय समाज जीवन का यही समरस स्वरूप उसकी वास्तविकता है जो महाकुंभ में इस बार भी साक्षात हो रहा है ।

संपूर्ण भारत राष्ट्र का एक सूत्र स्वरूप

भारत के किसी भी तीर्थस्थल पर और विशेष रूप से महाकुंभ में समाज जीवन की समरसता के जो दर्शन होते हैं वहीं दर्शन संपूर्ण भारत राष्ट्र की एकरूपता के होते हैं। महाकुंभ की पुण्य तिथियों में डुबकी लगाने केलिये भारत के हर क्षेत्र और हर भाषा के श्रृद्धालु आते हैं। अंग्रेजीकाल में भाषा और भूषा के आधार पर जो विभाजन की रेखाएँ गहरी कीं गई थी वह आज हमें राज्यों के विभाजन के रूप में दिख रही है । लेकिन कुंभ में स्नान करने आये समूहों में न भाषा का भेद होता है और न राज्य या क्षेत्र का । कयी बार श्रृद्धालुओं की भाषा दुकानदार या सुरक्षा प्रहरी नहीं समझ पाते किन्तु संकेतों से आशय समझकर सहायता करते हैं। अभी औपचारिक शुभारंभ के पहले संतों और अखाड़ों की टोलियाँ अपने भक्तों के साथ प्रयागराज पहुँच गई हैं उनमें भी प्रत्येक क्षेत्र और प्रत्येक राज्य के संत हैं। उनकी अपनी भाषा है जिसका उपयोग वे अपने शिविर में करते हैं लेकिन शिविर से बाहर आकर घाट पर पहुँचने के मार्ग में और गंगा जी में डुबकी लगाने में मानो सब एक स्वरूप और एक सूत्र में पिरोयी हुई माला हैं जो हजार कुचक्रों के बीच भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक और सार्वभौमिकता का साक्षात स्वरूप है ।

महाकुंभ आयोजन की पुराण कथाएँ और उनका संदेश

भारत के चारों स्थानों पर आयोजित होने वाले महाकुंभ की तीन कथाएँ विभिन्न पुराणों में हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध कथा समुद्र-मंथन की है। जिसमें चौदह अलौकिक वस्तुओं के साथ अमृत कलश भी प्रकट हुआ। कलश का अर्थ घट और कुंभ भी होता है। कथा के अनुसार देवों और दैत्यों में परंपरागत शत्रुता थी। दैत्य छल बल में बहुत कुशल थे जबकि देव छल नहीं जानते थे लेकिन अमृत के लालच में दैत्य भी देवों के साथ आ गये। दोनों ने मिलकर समुद्र-मंथन किया इसमें कामधेनु, ऐरावत, उच्चश्रवा, धन्वन्तरि, विष आदि चौदह रत्नों के साथ अमृत कलश प्रकट हुआ इसे प्राप्त करने के लिये संघर्ष आरंभ हो गया। इसी बीच इन्द्र के पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर भागे। भागते समय चार स्थानों पर अमृत की बूंदें छलक गईं। ये चार स्थान हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और प्रयागराज हैं। इसलिये इन चारों स्थानों पर महाकुंभ आयोजित होता है। अमृत कलश के लिये वह संघर्ष बारह दिन चला। इसलिये महाकुंभ का एक पूरा चक्र बारह वर्ष में पूरा होता है। अमृत घट से अमृत की बूंदेंतीन दिन बाद छलकीं, इसलिए एक स्थान पर आयोजन होकर दूसरे स्थान पर कुंभ आयोजन में तीन वर्ष का अंतर होता है। एक अन्य कथा में असुरों ने अमृत घट नागलोक में छिपा दिया। गरुड़ ने अमृत घट ढूँढा और लेकर चले। उन्होंने कुल चार स्थानों घट रखा। जिन स्थानों पर घट रखा, उन्हीं चार स्थानों पर कुंभ आयोजन होता है। एक अन्य कथा में कश्यप ऋषि की पत्नियों के बीच विवाद और नागलोक से अमृत कलश लाने की कथा है ।

प्रश्न यह नहीं है कौन-सा कथानक यथार्थ है लेकिन इन तीनों कथाओं का अपना-अपना संदेश है। पहली कथा का संदेश संयुक्त प्रयास है। जब दैत्यों और देवों ने मिलकर समुद्र-मंथन किया तो अमृत निकला। अर्थात जीवन को निरापद बनाना है तो सब मिलकर कार्य करें और संघर्ष सकारात्मक दिशा में हो। लेकिन इस कथा में यह संदेश भी है कि दुष्ट कभी दुष्टता नहीं छोड़ते वे मिलकर कार्य करते हैं तो वह भी उनकी चाल होती है। अतएव दुष्टों से सतर्कता आवश्यक है, दुष्ट को पराजित करने के लिये छल का प्रयोग भी वर्जित नहीं है। अन्य दोनों कथाओं में मिलकर कार्य करने, किसी की भेंट का सम्मान रखने और लक्ष्य प्राप्ति के लिये योग्य व्यक्ति द्वारा उचित मार्ग ही अपनाना चाहिए। जैसे नागलोक जाकर कलश लाने के लिये गरुड़ जी ही सबसे उपयुक्त थे।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश