Enter your Email Address to subscribe to our newsletters
रमेश शर्मा
अंग्रेजी राज से भारत की मुक्ति के लिए एक ओर सशस्त्र और अहिंसक आंदोलन हुए, वहीं सामाजिक और साहित्यिक जागरण के अभियान भी चले। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने 1857 की क्रांति की विफलता के बाद समाज का मनोबल बढ़ाने के लिए हिन्दी जागरण का अभियान चलाया । परिवार ने उनका नाम हरिश्चन्द्र ही रखा था। साहित्य की अद्भुत साधना के लिए उन्हें भारतेन्दु अर्थात भारत का चन्द्र उपाधि से विभूषित किया गया । उन्होंने अपने सम्मान को नाम के आगे लिखा और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने जब होश संभाला तब भारतीय समाज जीवन, हिन्दी साहित्य, और हिन्दी भाषा विषमता से गुजर रही थी । 1857 की क्रान्ति की विफलता के बाद समाज का मनोबल टूटा हुआ था । विदेशी लेखक ही नहीं अनेक भारतीय मनीषी भी अंग्रेजी में साहित्य रचना करने लगे थे।
ऐसे वातावरण में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने होश संभाला। और स्वभाषा में रचना करने का अभियान चलाया । उन्होंने स्वयं भी अवधी, ब्रज भाषा और हिन्दी विशेषकर खड़ी बोली में साहित्य रचना आरंभ की अपितु अन्य लेखकों को भी प्रोत्साहित किया। साहित्य जगत के गरिमामय जिस स्थान पर आज हिन्दी खड़ी बोली प्रतिष्ठित है । इसमें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र महत्वपूर्ण योगदान है । घर में साहित्य का वातावरण था। इसका प्रभाव उनके आंख खोलते ही पड़ा। वे बचपन से तुकबंदी करके कविता करने लगे और आसपास घटी घटनाओं की कहानी बनाकर सुनाने लगे थे । सात वर्ष की आयु तक उनकी रचनाएं परिष्कृत होने लगीं थीं । ये रचनाएं उपलब्ध भी हैं। उन्होंने गद्य, पद्य, कहानी और व्यंग्य ही नहीं, नाटक भी लिखे । उन्हें आधुनिक नाट्य रचना का पितामह कहा जाता है। उनकी रचनाओं में तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति में समाज जीवन के वातावरण दासत्व एवं गरीबी का दर्द, शोषण की असहनीयता और पिछड़ेपन पर समाज का ध्यानाकर्षण है ।
उन्हें नव जागरण का कल्पनाकार भी माना जाता है । उनकी जीवन यात्रा कुल पैंतीस वर्ष रही । अपनी इस अल्पजीवन यात्रा में भारतेन्द ने संसार के सामने लगभग सभी साहित्य विधाओं पर इतनी रचनाएं की। इससे लगता है वे प्रकृति से अतिरिक्त प्रज्ञा लेकर संसार में आए थे । ऐसे विलक्षण और दूरदर्शी साहित्य विधा के पुरोधा पुरुष भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म 09 सितंबर 1850 को उत्तर प्रदेश के बनारस में हुआ था । घर में बालक ने जन्म लिया तो परिवार ने नाम हरिश्चन्द्र रखा । आर्थिक रूप से उनके परिवार की पृष्ठभूमि बहुत समृद्ध थी । बनारस के प्रमुख धनी परिवारों में गणना होती थी। पिता गोपाल चन्द्र भी अपने समय के प्रसिद्ध कवि थे । घर में हिन्दी और साहित्य दोनों का वातावरण था । बालक हरिश्चन्द्र बचपन से ही बहुत कुशाग्र बुद्धि और कल्पनाशील थे । उनकी स्मरण शक्ति भी अद्भुत थी । जब पांच वर्ष के हुए तो माता का निधन हो गया । इनकी देखभाल दादी ने की । और जब दस वर्ष के हुए तो पिता का भी निधन हो गया ।
वे बालवय से ही कविता लेखन करने लगे थे । यह उनकी विलक्षण प्रतिभा ही थी कि वे किशोर वय में ही 'बाल विबोधिनी' पत्रिका, 'हरिश्चंद्र पत्रिका' और 'कविवचन सुधा' पत्रिकाओं के संपादन से जुड़ गए थे । उन्होंने केवल 18 वर्ष की आयु में कवि वचन सुधा' पत्रिका का प्रकाशन आरंभ कर दिया था । उस समय के भारत के ऐसे कोई प्रतिष्ठित विद्वान और साहित्यकार नहीं जिनकी रचनाएं इस पत्रिका में प्रकाशित न हुई हों। भारतेन्दु को भारत की विविध भाषाओं का ज्ञान था । इनमें अवधि, ब्रजभाषा, बंगला, मराठी, गुजराती, उर्दू और संस्कृत भाषा भी थी । उनका साहित्य लेखन लगभग सभी भाषाओं में हुआ । लेकिन हिन्दी खड़ी बोली और ब्रजभाषा में अधिक। उन्होंने केवल सत्रह वर्ष की आयु में बांग्ला भाषा के लोकप्रिय नाटक विद्या सुन्दर का खड़ी बोली में अनुवाद किया । इसका मंचन हुआ । फिर खड़ी बोली में स्वयं अपनी नाट्य रचनाएं भी आरंभ की । उनके नाटकों की कथावस्तु और पात्रों का चयन उनका अपना अनुभव होता था । वे बहुत संवेदनशील स्वभाव के थे । जो वो देखते थे वह घटनाक्रम उनके मष्तिष्क में स्थाई स्वरूप ले लेता था और वही नाटकों में रूपांतरित हो जाता था । इन नाटकों का भी मंचन हुआ ।
इसीलिए उन्हें हिन्दी थियेटर का पितामह भी कहा जाता है । उनकी साहित्य विधा से प्रभावित काशी के विद्वानों ने उन्हें भारतेन्दु की उपाधि से विभूषित किया । तब उनकी आयु मात्र तीस वर्ष की थी । साहित्य में उनके अद्भुत योगदान और उनसे प्रेरित तत्कालीन साहित्यकारों द्वारा रचित रचनाओं के कारण ही उनके जीवनकाल को भारतेन्दु युग के रूप से जाना जाता है। होश संभालते ही अपने जीवन के प्रत्येक क्षण हिन्दी साहित्य को समर्पित करने वाले भारतेंदु ने 06 जनवरी 1885 को अंतिम सांस ली।
उनकी रचनाओं में विविधता है । इसमें भक्ति, शृंगार और निर्वेग की रचनाएं भी हैं। इनमें दोहा, चौपाई और छंद भी हैं। उनकी भाषा परिष्कृत और शुद्ध है । भारतेन्दु को स्वभाषा, अपनी परंपरा, विरासत और भारत राष्ट्र के प्रति गहरी निष्ठा थी । इसकी झलक उनकी साहित्य रचनाओं में है । वे सुधारवादी थे। उनकी रचनाओं में सामाजिक समस्याओं और कुरीतियों के उन्मूलन का स्पष्ट संदेश है । उन्होंने अपने जीवन काल में कुल 72 ग्रंथों की रचना की । उनकी प्रत्येक रचना कालजयी है । यद्यपि भारतेन्दु का रचना संसार लगभग सभी भाषाओं में है फिर भी ब्रजभाषा में उनकी रचनाएं असाधारण हैं। इन रचनाओं में अदभुत शृंगार है। इनका साहित्य प्रेममय था। इनमें सप्त संग्रह और प्रेम माधुरी प्रमुख रचना है।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
---------------
हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद