महाभारत में पांडवों ने युद्ध के समय किया था घोष, संघ ने भी इसे पुनर्जागृत कियाः डॉ. मोहन भागवत
- स्वर शतकम कार्यक्रमः स्वयंसेवकों ने किया शंख, वेणु, पणव, त्रिभुज और झल्लरी पर भारतीय रागों पर आधारित रचनाओं का वादन इंदौर, 3 जनवरी (हि.स.)। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में शुक्रवार को इंदौर में स्वर शतकम् कार्यक्रम का घोष
कार्यक्रम को संबोधित करते हुए सरसंघचालक भागवत


घोष वादन करते हुए स्वयंसेवक


घोष वादन करते हुए स्वयंसेवक


घोष वादन करते हुए स्वयंसेवक


घोष वादन में बनाई आकृतियां


घोष वादन में बनाई आकृतियां


- स्वर शतकम कार्यक्रमः स्वयंसेवकों ने किया शंख, वेणु, पणव, त्रिभुज और झल्लरी पर भारतीय रागों पर आधारित रचनाओं का वादन

इंदौर, 3 जनवरी (हि.स.)। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में शुक्रवार को इंदौर में स्वर शतकम् कार्यक्रम का घोष वादन के साथ समापन हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत की मौजूदगी में यहां दशहरा मैदान में आयोजित कार्यक्रम में ध्वजारोहण के बाद मालवा प्रांत के 28 जिलों के 870 घोष वादक की प्रस्तुति शुरू हुई। सरसंघचालक डॉ. भागवत ने कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि एक साथ इतने स्वयंसेवक संगीत का प्रस्तुतिकरण कर रहे हैं, यह एक आश्चर्यजनक घटना है। हमारी रण संगीत परंपरा जो विलुप्त हो गई थी, अब फिर से लौट आई है। महाभारत में पांडवों ने युद्ध के समय घोष किया था, उसी तरह संघ ने भी इसे पुनर्जागृत किया है।

उन्होंने कहा कि संघ जब शुरू हुआ, तब शारीरिक कार्यक्रमों के साथ-साथ संगीत की भी आवश्यकता थी। उस समय मिलिट्री और पुलिस से ही संघ ने संगीत सीखा। यह सब देशभक्ति के लिए किया गया। उन्होंने कहा कि हमारा देश दरिद्र नहीं है, हम अब विश्व पटल पर खड़े हैं। संघ के कार्यक्रमों से मनुष्य के सद्गुणों में वृद्धि होती है। संघ लाठी चलाना प्रदर्शन के लिए नहीं सिखाता। लाठी चलाने का उद्देश्य झगड़ा करना नहीं है, बल्कि यह उस स्थिति के लिए है, जब कोई हमारे सामने आकर गिर जाए, तो हम उसकी मदद कर सकें। यह एक कला है और लाठी चलाने से व्यक्ति को वीरता आती है। डर का भाव खत्म हो जाता है।

डॉ. भागवत ने कहा कि भारतीय संगीत और वाद्य यंत्रों का तालमेल, सद्भाव और अनुशासन सिखाता है, साथ ही यह मनुष्य को व्यर्थ के आकर्षणों से मुक्त कर सत्कर्मों की ओर प्रेरित करता है। भारतीय संगीत न केवल चित्त की वृत्तियों को शांत करता है, बल्कि आनंद की भावना उत्पन्न करता है। दुनिया का संगीत चित्त को उत्तेजित करता है, जबकि भारतीय संगीत उसे शांति प्रदान करके आनंद उत्पन्न करता है। भारतीय संगीत सुनने से व्यक्ति में इधर-उधर के आकर्षणों से मुक्ति पाकर सत्कर्मों की प्रवृत्ति जागृत होती है।

उन्होंने संघ में घोष दलों के महत्व को बताते हुए कहा कि संगीत के सब अनुरागी है, लेकिन साधक सब नहीं होते। भारतीय संगीत में घोष दलों की परंपरा नहीं थी। शुरुआत में संघ के स्वयंसेवकों ने नागपुर के कामठी केंटोनमेंट बोर्ड में सेना के वादकों की धुनें सुनकर अभ्यास किया। संगीत वादन भी देशभक्ति से जुड़ा है। दूसरे देशों में देशभक्ति संगीत से भी प्रदर्शित होती है। हम दुनिया में किसी से पीछे न रहे, हमने भी घोष की उपयोगिता को समझा इसलिए संघ ने भी घोष दल बनाए।

सरसंघचालक ने कहा कि संघ के कार्यक्रम प्रदर्शन के लिए नहीं होते। उनसे जुड़कर मनुष्य की संस्कृति, स्वभाव और संस्कार बनते हैं। आयोजन में इस जयघोष का प्रदर्शन इसलिए किया गया कि समाज इस जयघोष की जड़ को देखे। राष्ट्र निर्माण के लिए लोग संघ से जुड़े। लोगों में राष्ट्र निर्माण का भाव जागृत होगा तो एक दिन सारी दुनिया सुख और शांति का युग देखेगी। इस दौरान उन्होंने स्वयंसेवकों को देशभक्ति और अपने कर्तव्यों को निभाने का संदेश भी दिया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100वें वर्ष में कार्य विस्तार एवं गुणवत्तापूर्ण कार्यक्रमों की श्रृंखला में यह स्वर-शतकम् कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इसके लिए मालवा प्रांत के सभी 28 जिलों के 868 वादकों ने छह माह घोष वादन की तैयारी की। घोष पथकों ने शंख, वेणु, पणव, त्रिभुज और झल्लरी पर भारतीय रागों पर आधारित रचनाओं का वादन किया। इस दौरान करीब 45 मिनिट तक धुनों की प्रस्तुति में स्वयंसेवकों ने अलग-अलग धुनें बजाई। बांसुरी पर भजन मेरी झोपडी के भाग खुल जाएंगे राम आएंगे..., नमःशिवाय भजन की धुन भी बजाई गई। स्वयंसेवकों ने इस दौरान स्वास्तिक और सौ के अंक की मानव आकृति भी बनाई।

समारोह के मुख्य अतिथि लोक गीत कलाकार कालूराम बामनिया ने कहा कि कर्म की प्रधानता है। हमें कर्म करना चाहिए। कर्म से मनुष्य महान बनता है। मंच पर मालवा प्रांत के सरसंघचालक प्रकाश शास्त्री, डॉ मुकेश मोड़ भी मंच पर मौजूद थे।

हिन्दुस्थान समाचार / मुकेश तोमर