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रमेश सर्राफ धमोराकुछ पेड़-पौधे ऐसे हैं जिनसे हम कई चमत्कारिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इन पेड़ों-पौधों में आक का पौधा भी है। आक एक औषधीय पौधा है। इसको मदार, आक, अर्क और अकौआ भी कहते हैं। इसे जानवर भी नहीं खाते है। यह बंजर भूमि में भी आसानी से उग आता है। इसके फल से गर्म तासीर की कोमल चिकनी रूई निकलती है। इसमें विषाक्त दूध भरा होता है। इसका वृक्ष छोटा और छत्तादार होता है। पत्ते बरगद के पत्तों समान मोटे होते हैं। हरे सफेदी लिए पत्ते पकने पर पीले रंग के हो जाते हैं। इसका फूल सफेद और छोटा होता है। फूल पर रंगीन चित्तियां होती हैं। फल आम की तरह होते हैं, जिनमें रूई निकलती है। आक की शाखाओं में दूध निकलता है। वह दूध विष का काम देता है। आक गर्मी के दिनों में रेतीली भूमि पर होता है। चाैमासे में पानी बरसने पर सूख जाता है।
दुर्गम रेतीले टीलों में जहां मीलों दूर तक पेड़ की छांव नसीब नहीं होती है, उन जगहों पर आक का पौधा खूब फलता फूलता है। राजस्थान के थार मरूस्थल के अलावा आक का पौधा दक्षिण मध्य भारत के गर्म और शुष्क वातावरण में खुले और समतल मैदानों में पाया जाता है। आक के पत्ते मोटे और चिकने होते हैं तथा पत्तों के पृष्ठ भाग पर हल्का सफेद आवरण होता हैं जो कि हाथ से रगड़ने पर उतर जाता हैं। आक का पौधा प्राय हर मौसम मे हरा भरा रहने के कारण यह रेगिस्तान का सदाबहार पौधा कहलाता है।
आक चार प्रकार के होते हैं (1) श्वेतार्क अर्थात सफेद आक (2) रक्तार्क व लाल आक (3) लाल आक का ही दूसरा प्रकार है जो ऊंचाई में सबसे छोटा और सबसे विषैला होता है (4) पर्वतीय आक। पहाड़ी आक पौधे के रूप में नहीं, बेल के रूप में होता है जो उत्तर भारत में बहुत कम किन्तु महाराष्ट्र में पर्याप्त मात्रा में होता है। लाल जाति का आक सर्वत्र सुलभता से प्राप्य है। गुणों की दृष्टि से औषध के रूप में दोनों प्रकार के आकों का प्रयोग होता है। दोनों में कुछ समान गुण भी मिलते हैं किन्तु श्वेत अर्क में अधिक उत्तम गुण होने से आयुर्वेद में यह वनस्पति दिव्य औषधि मानी जाती है। लाल आक इसके समान तो नहीं किन्तु यह भी गुणों का भंडार है। जितना लाभ इस पौधे से वैद्यों और भारतीय चिकित्सकों ने तथा रसायनशास्त्रियों ने पहले उठाया था उतना किसी द्वितीय औषध से नहीं उठाया ।
आक भारत का एक प्रसिद्ध पौधा है जो आयुर्वेद के शास्त्रों में जानी मानी औषधि है। जिसे छोटे-छोटे वैद्य तथा ग्रामीण अनपढ लोग भी जानते हैं और औषध रूप में प्रयोग भी करते हैं । भारत में आक के पौधे सब स्थानों पर मिलते हैं पर ऊंचे पर्वतों पर ये नहीं मिलते। आक का पौधा चार फीट से लेकर पन्द्रह फीट तक की ऊंचाई में देखने को मिलता है। यह ऊंची शुष्क मरुभूमि में अधिक होता है। ऊसर भूमि में उत्पन्न होने के कारण अरबी में इसको ऊसर कहते हैं। आक के पौधे शुष्क, उसर और ऊंची भूमि में प्रायः सर्वत्र देखने को मिलते हैं। इस वनस्पति के विषय में साधारण समाज में यह भ्रान्ति फैली हुई है कि आक का पौधा विषैला होता है। यह मनुष्य को मार डालता है। इसमें किंचित सत्य जरूर है क्योंकि आयुर्वेद संहिताओं में भी इसकी गणना उपविषों में की गई है। यदि इसका सेवन अधिक मात्रा में कर लिया जाए तो, उल्टी दस्त होकर मनुष्य की मृत्यु हो सकती है। इसके विपरीत यदि आक का सेवन उचित मात्रा में, योग्य तरीके से चतुर वैद्य की निगरानी में किया जाये तो अनेक रोगों में इससे बड़ा उपकार होता है।
आक के पौधों का सबसे बड़ा फायदा है कि उनसे हमें ऑक्सीजन गैस प्राप्त होती है। इसके अलावा प्राकृतिक दृष्टिकोण से भी पेड़-पौधों का सर्वाधिक महत्व है। इनके बिना वातावरण को सन्तुलित किया ही नहीं जा सकता। हर परिस्थिति में हरियाली हमारे लिए फायदेमंद ही है। इन फायदों के साथ ही शास्त्रों के अनुसार कई धार्मिक और ज्योतिषीय महत्व भी बताए गए हैं। ज्योतिष के अनुसार जिस घर के सामने या मुख्यद्वार के समीप आक का पौधा होता है उस घर पर कभी भी किसी नकारात्मक शक्ति का प्रभाव नहीं पड़ता है। इसके अलावा वहां रहने वाले लोगों को तांत्रिक बाधाएं कभी नहीं सताती। घर के आसपास सकारात्मक और पवित्र वातावरण बना रहता है जो कि हमें सुख-समृद्धि और धन प्रदान करता है। ऐसे लोगों पर महालक्ष्मी की विशेष कृपा रहती है और जहां-जहां से लोग कार्य करते हैं वहीं से इन्हें धन लाभ प्राप्त होता है।
आक का सूर्य से विशेष सम्बन्ध है। गर्मी में जब पृथ्वी सूर्य के निकट आ जाती है और सूर्य की भयंकर गर्मी से तपने और जलने लगती है, जोहड़, तालाब, बावड़ी सब का जल सूख जाता है। बड़ वृक्ष सूखने लगते हैं, तब यही पौधा है जो मरुभूमि में भी खूब फलता और फूलता है। यह आग्नेय प्रधान पौधा उस भयंकर उष्णकाल में खूब हरा भरा रहता है।
शास्त्रों अनुसार आक के फूल शिवलिंग पर चढ़ाने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं और अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। विद्वानों के अनुसार कुछ पुराने आकड़ों की जड़ में श्रीगणेश की प्रतिकृति निर्मित हो जाती है जो कि साधक को चमत्कारी लाभ प्रदान करती है। आक का हर अंग दवा है, हर भाग उपयोगी है। यह सूर्य के समान तीक्ष्ण तेजस्वी और पारे के समान उत्तम तथा दिव्य रसायनधर्मा है। कहीं-कहीं इसे वानस्पतिक पारद भी कहा गया है।
विषैला आक की जाति सबसे छोटी होती है अर्थात इसका जो पौधा ऊंचाई में सबसे छोटा होता है उसको विद्वान लोग सबसे विषैला मानते हैं। यह मरुभूमि में ही होता है। अधिक विषैले की पहचान यह है कि उस आक के पौधे का दूध निकालकर अपने नाखून पर उसकी दो-चार बूंदें टपकाएं। यदि दूध बहकर नीचे गिर जाए तो कम विष वाला है और यदि दूध वहीं अंगूठे के नाखून पर जम जाए तो अधिक विषैला है। अधिक विषैले दूध को सीधा खिलाने की औषधि में प्रयोग नहीं करना चाहिए, अन्य भस्म आदि औषध बनाने में इसका प्रयोग कर सकते हैं।
आक के फल देखने में अग्रभाग में तोते की चोंच के समान होते हैं। इसीलिए आक का एक नाम शुकफल है। ये फल ज्येष्ठ मास तक पक जाते हैं। इनके अंदर काले रंग के दाने वा बीज होते हैं और बहुत कोमल रूई से ये फल भरे रहते हैं। इसकी रूई भी विषैली होती है । फल का औषध में बहुत न्यून उपयोग होता है। क्षार बनाने वाले आक के पंचांग में फल को भी जलाकर औषध में उपयोग लेते हैं। चक्षु रोगों, कर्ण रोगों, जुकाम, खांसी, दमा, चर्मविकारों में, विष्मज्वर, वात और कफ के रोगों में इसके पुष्प, पत्ते, दूध, जड़ की छाल सभी का उपयोग होता है। इस पौधे के पत्ते को उल्टा कर के पैर के तलवे से सटा कर मोजा पहन लें। रात में सोते समय निकाल दें। एक सप्ताह में आपका शुगर सामान्य हो जाएगा। बाहर निकला पेट भी कम हो जाता है। काफी लोग इस उपयोग से लाभान्वित हो रहे हैं।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / रमेश