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—बटुकों ने वेद के अत्यंत कठिन पद, घन एवं जटा की प्रस्तुति दी
वाराणसी,14 जनवरी (हि.स.)। वेदे सर्वप्रतिष्ठितम् अर्थात् वेद में सभी विषयों का ज्ञान प्रतिष्ठित है। इस शास्त्रीय ध्येय वाक्य को आत्मसात कर काशी की गुरुकुल परम्परा का नजारा मंगलवार को दिखा। श्री स्वामी नारायणानन्दतीर्थ वेद विद्यालय में आयोजित शास्त्रार्थ प्रतियोगिता में बटुकों ने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए वेद संहिता को आद्योपांत श्रवण कराते हुए वेद के अत्यंत कठिन पद, घन एवं जटा इत्यादि अष्ट विकृतियों की प्रस्तुति दी। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के विभिन्न अप्राप्य शाखाओं की प्रतियोगिता हुई। जिसमें वेद पढ़ने वाले त्रिशताधिक बटुकों ने प्रतिभाग किया।
आचार्य गोपाल चन्द्र मिश्र वैदिक उन्नयन संस्थान, श्री पट्टाभिराम शास्त्री वेद मीमांसा अनुसन्धान केन्द्र और वेद विद्यालय के संयुक्त पहल पर आयोजित इस शास्त्रार्थ प्रतियोगिता में बटुकों की प्रतिभा से भेलूपुर थाना के एसएसआई घनश्याम मिश्र भी प्रभावित हुए। उन्होंने प्रथम स्थान पाने वाले बटुक को 1100 रूपये देकर पुरस्कृत किया। प्रतियोगिता के सूत्रधार लखन स्वरूप ब्रह्मचारी महाराज ने भी बच्चों को प्रोत्साहित किया। उन्होंने बटुक दुर्गादत्त पाण्डेय को 5,100 रुपए का विशिष्ट सम्मान दिया। दूसरे स्थान पर आए बटुक को 1100 रूपये और तृतीय स्थान प्राप्त करने वाले बटुक को 500 रूपया प्रोत्साहन राशि के साथ प्रमाणपत्र भी प्रदान किया।
उन्होंने बताया कि वेद चर्चा का क्रम पुर्नजीवित करते हुए विद्यार्थियों के अन्दर प्रतिस्पर्धा के माध्यम से उनके बुद्धि को और तीक्ष्ण बनाने का कार्य किया जा रहा है। प्राचीन काल में भी गुरु और शिष्य के मध्य ज्ञान को परिमार्जित करने के लिए शास्त्रार्थ स्वरूप वाद-विवाद का क्रम निहित होता था। आज़ यह परम्परा बहुत ही कम देखने को मिलती है । ऐसे समय में नन्हे-मुन्ने बटुक वैदिक ऋचाओं के मन्त्रभाग को कण्ठस्त कर रहे हैं। आये हुए सभी अतिथियों का स्वागत रुद्राक्ष की माला एवं अंगवस्त्र भेंट कर किया गया। प्रतियोगिता के दौरान प्राचार्य गोपाल चन्द्र मिश्र वैदिक उन्नयन संस्थान वेदमूर्ति शालीग्राम शर्मा, आचार्य, श्रीपट्टाभिराम शास्त्री वेद मीमांसा अनुसन्धान केन्द्र ज्योति स्वरूप तिवारी, प्राध्यापक श्री संन्यासी संस्कृत महाविद्यालय आचार्य दुष्यन्त मिश्र, आचार्य डॉ.जयन्तपति त्रिपाठी भी मौजूद रहे।
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हिन्दुस्थान समाचार / श्रीधर त्रिपाठी