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मनोज कुमार मिश्र
करीब दो महीने बाद होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अपने वजूद बचाने के लिए हर प्रयास करती दिख रही है। आम आदमी पार्टी (आआपा) संयोजक और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की कांग्रेस के साथ विधानसभा चुनाव में तालमेल न करने के ऐलान के बाद कांग्रेस ने भी अपने दम पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। इतना ही नहीं आआपा के तरह चुनाव की तारीख घोषित हुए बिना 70 में से 21 सीटों पर अपने मजबूत उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। उसमें अरविंद केजरीवाल के सामने नई दिल्ली सीट से पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र और पूर्व सांसद संदीप दीक्षित को उम्मीदवार बनाया गया है। अभी तक यही माना जा रहा है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में इस बार मुकाबला आआपा और भाजपा के बीच ही मुख्य रूप से होगा। सालों तक दिल्ली पर राज करने वाली कांग्रेस 2013 यानी आआपा के वजूद में आने के बाद से ही लगातार हाशिए पर सिमटती जा रही है। लगातार 15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित 2013 का विधानसभा चुनाव न केवल खुद हारी बल्कि कांग्रेस को 24.50 फीसद वोट और केवल आठ सीटें मिली। 2015 के विधानसभा चुनाव में उसे कोई सीट नहीं मिली और उसका वोट औसत घटकर 9.71 फीसद रह गया। इतना ही नहीं उसे 2020 के विधानसभा चुनाव में उसे केवल 4.26 फीसद वोट मिले।
अभी 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का आआपा से सीटों का तालमेल था। सात में से तीन सीटें कांग्रेस और चार आआपा लड़ी। चुनाव में सभी सातों सीटों पर लगातार तीसरी बार भाजपा जीती। कांग्रेस को 18.50 फीसद वोट मिले। माना जा रहा है कि कांग्रेस समर्थक वोटों पर दिल्ली में राज कर रही आआपा को लग रहा है कि उसके साथ तालमेल करने से कांग्रेस मजबूत हो जाएगी और देर-सबेरे आआपा को ही नुकसान पहुंचाएगी। वैसे आआपा के लिए यह तो खतरा बना ही हुआ है कि अगर कांग्रेस मजबूती से चुनाव लड़ी तो आआपा को ही नुकसान पहुंचाएगी और इससे भाजपा को फायदा होगा। अब यह सार्वजनिक हो गया है कि जिस आआपा को कांग्रेस ने भाजपा के मध्यमवर्गीय लोगों का समर्थन लेकर भाजपा को कमजोर करने के लिए तन-मन और धन से सहयोग किया था,उसी पार्टी ने कांग्रेस के समर्थक माने जाने वाले कमजोर वर्गों,अल्पसंख्यक और पूर्वांचल (पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड आदि के मूल निवासी) के प्रवासियों को अपना स्थाई वोटर बना लिया। 2013 के विधानसभा चुनाव में दिल्ली के अल्पसंख्यकों ने गलतफहमी में कांग्रेस को वोट दिया। तब उन्हें लगा कि भाजपा को कांग्रेस हरा रही है। उसके बाद के दोनों चुनावों में इस वर्ग ने आआपा को वोट किया। कांग्रेस इस चुनाव में इस वर्ग को अपने साथ लाने के प्रयास में लगी हुई है।
कट्टर धार्मिक छवि वाले उत्तराखंड के मंगलोर के विधायक काजी निजामुद्दीन दिल्ली के प्रभारी,राजस्थान के पूर्व विधायक दानिश अबरार सह प्रभारी और टिकटों की छानबीन समिति में पूर्व सांसद मीनाक्षी नटराजन के साथ सहारनपुर के सांसद इमरान मसूद हैं। दिल्ली में मुस्लिम आबादी अब 12 से बढ़कर अब 15 फीसद से ज्यादा हो गई है। 70 में से 17 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम मतदाता 20 फीसद से ज्यादा हैं। इनमें सीलमपुर, मटिया महल, बल्लीमरान, ओखला, मुस्तफाबाद, किराड़ी, चांदनी चौक, गांधीनगर, करावल नगर, विकास पुरी, ग्रेटर कैलाश, कस्तूरबा नगर, बाबरपुर, मोतीनगर, मालवीय नगर, सीमापुरी और छत्तरपुर शामिल हैं। इसी तरह 12 अनूसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर भी कांग्रेस ने पूरी तैयारी की है। दलितों में कांग्रेस का कुछ असर अब भी बचा है। पूर्वांचल के प्रवासी दिल्ली में सालों कांग्रेस का साथ देकर उसे सत्ता दिलाते रहे। दिल्ली के 70 में से 42 सीटों पर पूरबियों(पूर्वाचंल के प्रवासी) का वोट 20 फीसदी से ज्यादा है। यह तीनों और दिल्ली के गांव का एक वर्ग अगर कांग्रेस से जुड़ जाए तो उसके पुराने दिन लौट आ जाएंगे। कांग्रेस के पास आज की तारीख में कोई बड़ा पूरबिया नेता न होने से उसकी फिर से इस वर्ग में पैठ होने में कठिनाई हो रही है। जो गलती 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने किया,वह दोहराना नहीं चाहती। तब उम्मीदवार कमजोर नहीं थे लेकिन जयप्रकाश अग्रवाल के अलावा दोनों पार्टी में नए थे। इसके चलते पार्टी में भारी विद्रोह हो गया था। कांग्रेस के नेता चतर सिंह कहते हैं कि जो पद पाने के लिए दूसरे दलों में गए उनमें काफी को निराशा हाथ लगी है और बाकी की भी वही गति होनी है। अब ऐसा कुछ होनेवाला नहीं है।
2006 के परिसीमन में पूर्वी दिल्ली सीट दो हिस्सों में (पूर्वी दिल्ली और दिल्ली उत्तर पूर्व) बंटी। उससे पहले पूर्वी दिल्ली सीट से दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित सांसद थे जो परिसीमन के बाद 2009 में उसकी एक सीट से सांसद बने और 2014 में पराजित हुए। 2019 में पूर्वी दिल्ली की दूसरी सीट दिल्ली उत्तर पूर्व से उनकी मां और दिल्ली की 15 साल मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित चुनाव लड़ी और पराजित हुई। शीला दीक्षित 2019 में आआपा से समझौते का विरोध किया तो उन्हें प्रदेश अध्यक्ष के साथ जबरन लोकसभा चुनाव लड़वाया गया। सत्ता सुख भोगने की आदत पड़ जाने के चलते एक चुनाव की हार ने कांग्रेस को संकट में ही ला दिया। अपनी चिंता में लगे नेताओं ने पार्टी को हाशिए पर ला दिया। 2013 विधानसभा चुनाव की हार के बाद पार्टी बिखरती गई। 2015 के चुनाव के समय प्रदेश अध्यक्ष थे अरविंद सिंह लवली और मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बना दिया गया अजय माकन को। इससे नाराज लवली ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया। उसके बाद प्रदेश अध्यक्ष बने अजय माकन 2019 के लोक सभा चुनाव में आआपा से तालमेल की मुहिम चलाई। बताया गया कि कांग्रेस का एक वर्ग सात में से दो सीटों पर भी समझौता करने को तैयार हो गया था। जिस पार्टी ने कांग्रेस को हाशिए पर पहुंचाया उससे समझौता करने का शीला दीक्षित ने भारी विरोध किया। समझौता न होने पर भारी मन से अजय माकन नई दिल्ली सीट से चुनाव लड़कर हारे। वे भी बिना प्रदेश अध्यक्ष तय हुए बीमारी के बहाने प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ दी।
2020 के विधानसभा चुनाव के लिए पहले बिहार मूल के नेता कीर्ति आजाद को प्रदेश अध्यक्ष बनाना तय किया गया। वे पहले भाजपा के दिल्ली से विधायक और बिहार से सांसद थे। अचानक वरिष्ठ नेता सुभाष चोपड़ा को अध्यक्ष और आजाद को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बना दिया गया। गुटबाजी में आजाद अलग-थलग हो गए,उन्हें दिल्ली कांग्रेस दफ्तर में नियमित बैठने के लिए कमरा तक नहीं दिया गया। बाद में चुनाव नतीजों के बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और तृणमूल कांग्रेस में शामिल होकर लोकसभा के सदस्य बन गए। उस विधानसभा चुनाव के कुछ समय बाद कांग्रेस के पूर्वांचल के सबसे लोकप्रिय चेहरा रहे पूर्व सांसद महाबल मिश्र भी कांग्रेस छोड़कर आआपा में शामिल हो गए। इस बार आआपा ने उन्हें पश्चिमी दिल्ली से लोक सभा उम्मीदवार बनाया। उनके पुत्र विनय मिश्र पहले से ही आआपा में शामिल होकर विधायक और दिल्ली जल बोर्ड के उपाध्यक्ष बने हुए हैं। इस बार भी विधानसभा चुनाव में आआपा ने विनय मिश्र को उम्मीदवार बनाया है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कोई सीट नहीं मिली और कांग्रेस का वोट औसत घटकर पांच से नीचे हो गया। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद जुलाई में शीला दीक्षित के निधन के बाद चौधरी अनिल कुमार प्रदेश अध्यक्ष बने। लवली थोड़े ही समय भाजपा में रहकर कांग्रेस में लौट आए और 2019 का लोक सभा चुनाव पूर्वी दिल्ली सीट से मजबूती से लड़े। उन्हें 2023 में अनिल कुमार के इस्तीफा देने पर दोबारा अध्यक्ष बनाया गया था लेकिन 2024 के लोक सभा चुनाव में टिकटों के बंटवारे में अपनी भूमिका न होने से नाराज होकर उन्होंने फिर कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन पकड़ लिया। उसी दौरान बड़ी तादाद में कांग्रेस के अनेक नेता भाजपा में शामिल हुए।
आआपा ने भले 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से समझौता किया लेकिन आज भी आआपा कांग्रेस को गंभीरता से नहीं ले रही। जबकि अब हालात दूसरे हैं। कट्टर ईमानदार होने का मंत्र जपने वाले आआपा नेता अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी शराब घोटाले में फंसी हुई है। उनके लोगों पर कई और भ्रष्टाचार के आरोप लगे और कई नेताओं को जेल जाना पड़ा। 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ समाजसेवी अण्णा हजारे के आंदोलन में शामिल अनेक लोगों ने 26 अक्तूबर,2012 को आआपा के नाम से राजनीतिक दल बनाकर 2013 में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ना तय किया। वैसे अण्णा हजारे ने राजनीतिक पार्टी बनाने का विरोध किया था। पहले ही चुनाव में बिजली-पानी फ्री का मुद्दा कारगर हुआ। आआपा को 70 सदस्यों वाले विधानसभा में करीब 30 फीसद वोट और 28 सीटें मिली। भाजपा करीब 34 फीसद वोट के साथ 32 सीटें जीती। दिल्ली में 15 साल तक शासन करने वाली कांग्रेस को 24.50 फीसद वोट के साथ केवल आठ सीटें मिली। माना गया कि दिल्ली का अल्पसंख्यक भाजपा को हराने वाले दल का सही अनुमान लगाए बिना कांग्रेस को वोट दिया था। अगले चुनाव में अल्पसंख्यक आप से जुड़ गए तो कांग्रेस हाशिए पर पहुंच गई।
भाजपा के मना करने पर आआपा ने कांग्रेस से बिना मांगे समर्थन से सरकार बनाई और नियम का पालन किए बिना लोकपाल विधेयक विधानसभा में पेश करने से रोके जाने के खिलाफ 49 दिनों पुरानी सरकार ने इस्तीफा दिया। तब कांग्रेस को लगा कि आआपा बिखर जाएगी लेकिन उसे दिल्ली में पैर जमाने का अवसर उसके बाद कांग्रेस से ज्यादा भाजपा ने दिया। आआपा सरकार गिरने के करीब नौ महीने बाद (15 फरवरी,2014 को केजरीवाल सरकार ने इस्तीफा दिया और तीन नवंबर,2014 को राष्ट्रपति शासन लगा।) बाद दिल्ली में पहली बार राष्ट्रपति शासन लगा। 2014 के लोक सभा चुनाव में आआपा ने देश भर में चुनाव लड़ना तय किया। खुद केजरीवाल भाजपा के प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बनारस चुनाव लड़ने पहुंच गए। आआपा के ज्यादातर प्रमुख नेता लोक सभा चुनाव लड़े और पराजित हुए। केवल पंजाब में चार सीट आआपा जीत पाई। बाद में उसमें से दो सांसद आआपा से अलग हो गए और 2019 के लोक सभा चुनाव में केवल भगवंत मान चुनाव जीते,वे 2022 में विधानसभा में आआपा की जीत के बाद पंजाब के मुख्यमंत्री बने।
कांग्रेस की कमजोरी और भाजपा की अधूरी तैयारी के चलते और बिजली-पानी फ्री करने के वायदे ने आआपा को 2015 के चुनाव में दिल्ली विधान सभा में रिकार्ड 54 फीसदी वोट के साथ 67 सीटों पर जीत दिलवा दी। उस चुनाव ने कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचाया। कांग्रेस को कोई सीट नहीं मिली और उसका वोट औसत घट कर 9.7 पर आ गया। 2020 के विधानसभा चुनाव में आआपा को फिर से भारी जीत मिली। उसे 70 में से 62 सीटें मिली। फिर तो आआपा ने पंजाब में भी विधानसभा चुनाव जीत कर सरकार बना ली और अखिल भारतीय पार्टी का दर्जा हासिल कर लिया। इतना ही नहीं वह जगह-जगह कांग्रेस का विकल्प बनने की कोशिश करने लगी। इसी बीच में भाजपा के खिलाफ विपक्षी गठबंधन बना। आआपा इस गठबंधन में शामिल होकर 2024 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस के साथ कुछ स्थानों पर गठबंधन कर लिया। यह गठबंधन पहले हरियाणा चुनाव में टूटा और अब दिल्ली में टूटने की घोषणा दोनों ही दलों ने कर दी है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान आआपा अपने को शराब घोटाले में पाक-साफ होने का दावा करेगी,भाजपा आआपा को भ्रष्ट साबित करने में लगेगी, वहीं कांग्रेस दिल्ली में अपनी खोई जगह पाने के लिए भाजपा और आआपा के खिलाफ मजबूती से चुनाव लड़ कर अपना वजूद को बचाने का प्रयास करेगी। अल्पसंख्यक और दलित मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए कांग्रेस जी-जान की कोशिश कर रही है। उसका तीसरा मूल वोटर कहे जाने वाले पूर्वांचल के प्रवासी हैं,जिसमें उसका समर्थन सबसे कम दिखता है। कांग्रेस के पास आआपा और भाजपा के पूर्वांचल नेताओं के मुकाबले कोई बड़ा पूर्वांचली नेता नहीं है। कांग्रेस हर स्तर पर हाथ-पांव मारती नजर आ रही है। देखना है कि कांग्रेस इसमें कितना कामयाब हो पाती है। अगर इस चुनाव में उसको कोई सीट न मिली या उसका वोट औसत न बढ़ा तो उसका दिल्ली में भी वही हाल होगा जैसा उन राज्यों में हुआ है, जहां किसी तीसरी पार्टी ने मजबूत होकर कांग्रेस का स्थान ले लिया है।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश