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संजय तिवारी
प्रयागराज में संगम का तट पुनः ऊर्जा लिए प्रतीक्षा में है। 12 वर्ष बीत चुके। पृथ्वी, पवन, पानी, आकाश, वायु और अग्नि अपनी अपनी गति से रचना और विलय की यात्रा कर रहे हैं। जो निर्मिति है उसका शोधन होना है। इसी निर्माति में समस्त चराचर जगत है। इस निर्मिति का एक लय है, आधार है, अध्यात्म है, दर्शन है जिसे सनातन मनीषा महाविज्ञान की संज्ञा देती है। यह अद्भुत है। अद्वितीय है। विश्व की किसी सभ्यता के पास इसको समझने की सामर्थ्य नहीं। सनातन भारत की मनीषा ने इसका गूढ़ जान लिया है और सृष्टि के साथ ही इसके संस्कारयुक्त आकार , प्रकार और आयोजनों को स्थापित भी कर लिया है। सृष्टि में पिंड की स्थापना का आधार प्रति बारहवें वर्ष संशोधित और परिमार्जित होता है। यही कुंभ है।
सृष्टि के साथ साथ तीर्थ की यात्रा। अमृत घट का रहस्यमय स्वरूप। सृष्टि में तीन लोक। इन तीन में से एक लोक। इस एक लोक में तीर्थराज प्रयागराज । यहां गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी का पवित्र संगम। ऐसे संगम तट पर महाकुंभ का अलौकिक समागम । समुद्र मंथन के कुंभ घट से जुड़े इस तीर्थ क्रम में अब तक लाखों पड़ाव बीत चुके हैं। युगों और कल्पों की इस यात्रा में यह संगम स्वरूप भारत के तीन घाटों की यात्रा कर अपनी संपूर्णता में प्रत्येक 12 वर्ष पर प्रयागराज में अवतरित होता है। गंगा , यमुना और सरस्वती के पावन संगम को यह साक्षी मान कर मासोपरांत विदा होता है। पृथ्वी पर उपस्थित मानव जाति इसके मर्म को समझने का प्रयास करती है। सनातन की यह अवधारणा नित प्रति नई व्याख्याओं के साथ आगे बढ़ती जाती है।
इस महाकुंभ के आयोजन का आधार सृष्टि के वे ही त्रिगुणात्मक अवयव हैं जिन्हें वेदों ने भी गाया है और गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी। तीन की इस आधार आंकिक योग से इतर इस सृष्टि और पूरे ब्रह्मांड में कुछ भी शेष है ही नहीं। इसी लिए सनातन संस्कृति और इसके समस्त शास्त्रों में सृष्टि और प्रकृति को त्रिगुणात्मक कहा गया है। इस त्रिगुणात्मक स्वरूप की व्याख्या आगे करेंगे लेकिन इसके तीन अंग कितने और किस रूप में व्यवस्थित हैं, उसको समझना जरूरी है।
यह कुंभ क्या है? एक घट। यानी घड़ा। अमृत से भरा हुआ घट ही समुद्रंथन से प्राप्त हुआ था। उस घट में विद्यमान अमृत की प्राप्ति की इच्छा ने ही सुर और असुर संघर्ष को जन्म दिया। प्रत्येक 12 वें वर्ष, इस ब्रह्मांड की इस सृष्टि में पृथ्वी पर एक मात्र गंगा, यमुना और सरस्वती का यह संगम स्थल है जहां उस घट की अमृत की कुछ बूंदें यहां प्राप्त हो जाने की संभावना प्रबल रहती है। इन बारह वर्षों की अवधि के भीतर प्रत्येक तीन वर्ष पर यह आंशिक स्थिति हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में बनती है। इसीलिए इन तीन स्थानों पर क्रम से प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल पर अर्ध कुंभ आयोजित होते हैं।
कुंभ और ब्रह्माण्ड
कुंभ और इस ब्रह्मांड के संबंधों को भी समझने की जरूरत है। अंड शब्द का आशय एक कोष से है। ऐसा कोष जिसमें जगदनियंता परम ब्रह्म विराजमान हो। ब्रह्म जो अजन्मा है। अविनाशी है। उसी के कोष को ब्रह्मांड कहते हैं। अर्थात ब्रह्मांड में जो है वह ब्रह्म है, अविनाशी है, अमर है। इसीलिए सनातन शास्त्रों ने मनुष्य की व्याख्या करते समय इसे अमृतस्य पुत्राः की संज्ञा प्रदान की है। उस ब्रह्मांड का जो आकार है वह घट जैसा है। ऐसे घट के आकार वाले ब्रह्मांड का ही स्वरूप महाकुंभ अथवा कुंभ का आयोजन भी है। इस कुंभ में भरे हुए अमृत की बूंद पाने को लालायित प्रेमी ही इस आयोजन के भागीदार होते हैं।
सनातन संस्कृति में कुंभ अर्थात घट या कलश का बहुत महत्व है। जन्म से मृत्यु तक के सभी शुभाशुभ संस्कारों में कुंभ (कलश) को स्थापित करने के पश्चात् ही देव पूजन कर्म करने का विधान है। कलश या घट ही कुंभ है। ज्योतिष शास्त्र में बारह राशियों में से कुंभ एक राशि भी है। कुंभ का आध्यात्मिक अर्थ है ज्ञान का संचय करना, ज्ञान की प्राप्ति प्रकाश से होती है और कुंभ स्नान, दर्शन, पूजन से आत्म तत्व का बोध होता है। हमारे अन्दर ब्रह्माण्ड की समस्त रचना व्यापत है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ‘यत् पिण्डे, तत् ब्रह्माण्डे, तत् ब्रह्माण्डे, यत् पिण्डे’, अर्थात् जो मानव पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड है और जो ब्रह्माण्ड में है, वही मानव पिण्ड में है। कुंभ, ‘घट’ का सूचक है और घट शरीर का, जिसमें घट-घट व्यापी आत्मा का अमृत रस व्याप्त रहता है।
अंड अर्थात अणु और इसके अंग
जब कुंभ के आकार वाले ब्रह्मांड की चर्चा करते हैं तो इसके सूक्ष्म स्वरूप से चिंतन आरंभ होता है। सृष्टि में जो भी साकार है उसका निर्माण अणुओं से हुआ है। सनातन संस्कृति में प्रत्येक सूक्ष्म के तीन गुण बताए गए हैं। इसी आधार पर प्रकृति और सृष्टि को त्रिगुणी कहा गया। रज, तम, सत की संज्ञा वाले इन गुणों पर आगे चर्चा करेंगे। अभी इतना संज्ञान में लेना आवश्यक है कि पश्चिम के आधुनिक विज्ञान ने भी सृष्टि के सूक्ष्म को तोड़ कर तीन हो गुण प्राप्त किया है जिन्हें आधुनिक विज्ञान की भाषा में हम इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन की संज्ञा देते हैं। इन्हीं तीन के आधार पर आज की आधुनिक दुनिया दौड़ रही है। सनातन संस्कृति में सृष्टि के आधार कारक स्वरूप तीन देव सुनिश्चित किए गए हैं जिन्हें क्रम से ब्रह्मा , विष्णु और महेश की संज्ञा दी गई है। जन्म के कारक ब्रह्मा जी हैं। जीवन के पोषक विष्णु जी हैं। मृत्यु के देव महेश हैं। आधुनिक विज्ञान के आधार अन्वेषण में प्राप्त इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन के गुणों की विवेचना से स्पष्ट हो जाएगा कि हमारे सनातन शास्त्रों ने प्रकृति और सृष्टि को त्रिगुणी क्यों कहा होगा। हमारे पूज्य ब्रह्मा, विष्णु और महेश की निरंतर उपस्थिति के कारण क्या हैं और ब्रह्माण्ड का सृष्टि पर्व कुंभ ही क्यों है।
शास्त्र कहते हैं , कण कण में भगवान की उपस्थिति है। आधुनिक विज्ञान कहता है, प्रत्येक अणु में इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, और न्यूट्रॉन की उपस्थिति है। फिर यह कुंभ क्या है और इस कुंभ के भीतर जो अमृत तत्व निर्धारित किया जाता है वह क्या है।
आधुनिक विज्ञान की नवीनतम खोज के रूप में इलेक्ट्रॉन को चेतना या प्रकाश के रूप में देखा जा सकता है। यह जीवन और सृजनशीलता का प्रतीक है। यही गुण तो ब्रह्मा का भी है। प्रोटॉन को शक्ति या ऊर्जा के रूप में देखा जा सकता है। यह शक्ति और स्थिरता का प्रतीक है। न्यूट्रॉन को सद्भाव या शांति के रूप में देखा जा सकता है। यह संतुलन और एकता का प्रतीक है। इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, और न्यूट्रॉन से ही पदार्थ का अस्तित्व है। इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, और न्यूट्रॉन से परे होकर मोक्ष की अवस्था प्राप्त की जा सकती है। इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, और न्यूट्रॉन से जुड़े गुणों का क्रम ब्रह्मा, विष्णु, और शिव के क्रम के समान है। ब्रह्मा निर्माण करते हैं, इसलिए इलेक्ट्रॉन निर्माण का आधार है। विष्णु पालनकर्ता हैं, इसलिए न्यूट्रॉन के कारण पदार्थ के स्वरूप और उपयोग का निर्धारण होता है। शिव संहारकर्ता हैं, इसलिए प्रोटॉन के कारण परमाणु का विघटन या विनाश हो जाता है।
सृष्टि, कुंभ और तीन का संगम
कुंभ को सृष्टि पर्व भी कहा जाता है क्योंकि यह एक मात्र अवसर है जिसमें सृष्टि के उदय से लेकर अवसान तक की यात्रा को समझा जा सकता है। यह समझ केवल सनातन की यात्रा से जुड़ कर ही आती है। भारत से बाहर की दुनिया को यह आयोजन बहुत ही रहस्यमय और अद्भुत लगता है। धर्म, पंथ, मजहब, अध्यात्म और दुनिया के सांस्कृतिक एवं भौतिकवादी चिंतन के विद्वान इसमें कुछ गूढ़ की तलाश करते हैं। भारत यह ठीक से समझता है कि लाखों वर्षों की सनातन यात्रा में उत्पन्न आध्यात्मिक, सांस्कृतिक परिवेश का समुच्चय बन कर यह कुंभ कुछ नए संदेशों के साथ प्रत्येक अंतराल पर अवतरित होता है। यह एक मात्र समागम है जिसमें सनातन को स्वीकार कर अपनी यात्रा कर रहे तीन अनियों, 13 अखाड़ों और 147 संप्रदायों को प्रयागराज में संगम तट पर एक साथ देखा और जाना जा सकता है। इन अनियों, अखाड़ों और संप्रदायों के बारे में विस्तार से आगे चर्चा करेंगे।
जन्म , जीवन और मृत्यु
सृष्टि में जो कुछ भी है , इतने में ही समाहित है। जन्म प्राप्त करना, जीवन जीना और फिर मृत्यु का वरण। इसके अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं। त्रिगुण प्रकृति के भी तीन गुण हैं। ब्रह्मांड पुरुष (चेतना) और प्रकृति (प्रकृति) का मिलन है। प्रकृति ब्रह्मांड में जीवित और निर्जीव, स्थूल और सूक्ष्म पदार्थ में खुद को प्रकट करती है। पुरुष उस पदार्थ के क्षण या जीवन के पीछे का कारण है। ये तीन जैविक तत्व अथवा त्रिदोष मानव शरीर के घटक भी हैं वात, पित्त और कफ। यह प्रकृति है। जबकि मनुष्य के जन्मजात गुणों को तीन अलग-अलग श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है जिन्हें त्रिगुण के रूप में जाना जाता है। यह आध्यात्मिक पक्ष है। त्रिगुण मन के अभिन्न अंग हैं। सत्व, रजस और तमस, इन तीनों को मानसिक संरचना में मनसा दोष के नाम से भी जाना जाता है।
तमस
तमस निष्क्रिय अवस्था है जो सबसे कम है। यह भ्रमपूर्ण, आलसी, भ्रमित, अधिकार जताने वाला, सुस्त और लालची, अज्ञानता, आसक्ति है।
रजस
रजस सक्रिय अवस्था है जो अति सक्रिय है। इसकी विशेषता बेचैन, काम में डूबे रहने वाला, आत्मकेंद्रित, उपलब्धि प्राप्त करने वाला, आक्रामक, बेचैन, महत्वाकांक्षी है।
सत्व
सत्व क्रियाशीलता और जड़ता के बीच संतुलन है। सत्व अवस्था खुशी, शांति, आत्मीयता, ध्यान, संतुष्टि और देखभाल करने वाली होती है।
सृष्टि में जो कुछ भी है उसमें में ये तीन गुण अवश्य होंगे। वह सजीव हो अथवा निर्जीव। हमारे शरीर में रक्त का निरंतर प्रवाह रजोगुण कहलाता है। हमारा मन कभी-कभी बेतहाशा बहता है और यह रजोगुण है, और जब हम उस उतार-चढ़ाव को रोक पाते हैं, तो यह तमोगुण होता है। गहन ध्यान के दौरान, जब हम आत्म प्रेम और आनंद महसूस करते हैं, तो यह सत्व गुण है जो संतुलन है। त्रिगुण हमारे अंदर भौतिक और अभौतिक विशेषताओं को आकार देते हैं। तीन अलग-अलग त्रिगुणों का अनुपात हमें अलग-अलग तरीके से व्यवहार करने, प्रतिक्रिया करने, अवधारणा बनाने और आसपास की प्रकृति को समझने के लिए प्रेरित करेगा। विरासत में मिले गुण को शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभाव के कारण बदला जा सकता है।
किसी निश्चित समय में गुणों के प्रमुख होने से व्यवहार का आकार निर्धारित होता है। प्रमुख गुण व्यक्तित्व को तब प्रभावित करेगा जब 5 तत्वों को हमारी 5 इंद्रियों द्वारा अनुभव किया जाएगा और मन के माध्यम से प्रक्रिया की जाएगी तथा प्रमुख गुण द्वारा संशोधित किया जाएगा। इसलिए, गुण अंतिम तत्व हैं जो किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के पास संचित जाएं से अपनी बुद्धि का समर्थन करने के लिए अहंकार होता है। अहंकार से उत्पन्न होने वाले त्रिगुण उस व्यक्तित्व को निर्धारित करेंगे जिसके माध्यम से किसी विशेष समय पर प्रभुत्व होगा। सत्व गुण वाला व्यक्ति आध्यात्मिक गुणों से युक्त शुद्ध और सकारात्मक होता है। जब काम की बात आती है, तो वह वांछनीय और अवांछनीय स्थितियों के बीच अंतर करते हुए शांत रहता है। जितना अधिक सत्व स्वभाव होगा, उतना ही अधिक प्रेम, करुणा, दया और खुशी के प्रति लगाव होगा। अच्छे स्वास्थ्य की स्थिति यहीं है।
राजसिक व्यक्ति इच्छाओं और आसक्तियों से भरा होता है। चूंकि वे बहुत आत्म-केंद्रित होते हैं, इसलिए वे कभी-कभी सही और गलत में अंतर नहीं कर पाते। जब कोई उत्साही, गहरी दिलचस्पी रखने वाला, काम के प्रति समर्पित, सफल व्यक्ति होता है, तो वह संतुलित राज अवस्था में होता है।
यह सत्व और तम के बीच का पुल है, और उन्हें संतुलित करता है। चूंकि यह जुनून को संदर्भित करता है, यह बेहतर बदलाव के लिए प्रेरणा, आंदोलन, सही कार्रवाई, रचनात्मकता पैदा करता है। यदि यह असंतुलन है, तो व्यक्ति में क्रोध, चिंता और उत्तेजना होगी।
तम अंधकार से संबंधित है।यह भ्रम, नकारात्मकता, सुस्ती और निष्क्रियता से घिरा हुआ है। संतुलित तम अवस्था में, व्यक्ति समय पर सोएगा, संतुलित आहार लेगा, प्रकृति की सराहना करेगा, दूसरों के बारे में चिंता करेगा। हालांकि, अगर यह असंतुलन है, तो व्यक्ति अधिकार जताने वाला, दूसरों को नुकसान पहुँचाने की इच्छा रखने वाला, अल्पकालिक सुखी होता है। इसमें 7 संयोजन हैं: प्रमुख सत्व गुण, प्रमुख तम गुण, प्रमुख रज गुण, प्रमुख सत्व-रज गुण, प्रमुख सत्व-तम गुण, प्रमुख रज-तम गुण, संतुलित सत्व-रज-तम गुण।
त्रिगुण की उपस्थिति को हम जो कार्य करते हैं, उस कार्य के पीछे का इरादा और प्रतिक्रिया के माध्यम से देखा जा सकता है। कार्य और इरादे के लिए, हमें हर कार्य के लिए खुद से पूछना होगा: मैं यह क्यों कर रहा हूं (इरादा) और मैं यह कैसे कर रहा हूं (अभिव्यक्ति)। यह अलग-अलग गुण हो सकते हैं जो इरादे और अभिव्यक्ति दोनों पर हावी होते हैं, और अगर आप इस पर ध्यान दें तो हम प्रमुख को संतुलित कर सकते हैं। जहां तक प्रतिक्रिया की बात है तो यह की गई कार्रवाई का परिणाम है, आप कैसा महसूस करते हैं या प्रतिक्रिया करते हैं। हमें हमेशा संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है।
तम से रज की ओर बढ़ते हुए हम अधिक शारीरिक आसन क्रियाकलापों में संलग्न हो सकते हैं, सकारात्मक लोगों के साथ घुलमिल सकते हैं, नए स्थानों की यात्रा कर सकते हैं, हल्का भोजन कर सकते हैं। ये हमारे ऊर्जा स्तर को ऊपर उठाएंगे और राज अवस्था में ले जाएंगे। यहां से, सत्व की ओर बढ़ने के लिए, हम ध्यान, पढ़ना, गैर-लाभकारी कार्य कर सकते हैं और अत्यधिक ऊर्जा को संतुलित करने के लिए यम का पालन कर सकते हैं। निरीक्षण करना और बदलाव करना ही कुंजी है।
(लेखक, भारत संस्कृति न्यास के अध्यक्ष और संस्कृति पर्व के संपादक हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद