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जनजातीय गौरव दिवस (15 नवंबर) पर विशेष
- प्रो. मनीषा शर्मा
भारत के जनजातीय समाज का देश की कला, संस्कृति के संरक्षण और देश के स्वतंत्रता आंदोलन व राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आजादी की लड़ाई में कई जनजातीय नायक-नायिकाओं ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया परन्तु उन्हें इतिहास में वो स्थान नहीं मिला जिसके वो हकदार हैं। इन जनजातीय क्रांतिकारियों में प्रमुख हैं- बिरसा मुंडा, तिलका मांझी, टंटया भील, भीमा नायक, शंकर शाह, रघुनाथ शाह, सीताराम कंवर, मंशु ओझा, वीरांगना रानी दुर्गावती, टूरिया शहीद मुड्डे बाई, सुरेंद्र साय, रघुनाथ सिंह मण्डलोई। हमारे देश में जनजाति समाज के योगदान के बारे में देश के लोगों को जानकारी कम है। समाज को बतलाया ही नहीं गया या पता है तो बहुत सीमित रूप में कि स्वतंत्रता के महायज्ञ में इन जनजातीय नायकों ने प्राणों का बलिदान दिया और देश की अस्मिता पर आंच नहीं आने दी। इन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान कर दिया लेकिन अंग्रेजी हुकूमत के आगे समर्पण नहीं किया।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 नवंबर को जनजाति नायक बिरसा मुंडा के जन्म दिवस के अवसर पर जनजाति गौरव दिवस मनाने की घोषणा की। तब से विभिन्न राष्ट्रीय मंचों पर जनजाति समाज के योगदान के विषय में जो बातें हुई, चर्चा हुई उससे लोगो को विश्वास ही नहीं हुआ कि देश में इस तरह के जनजातीय नायक भी हुए जिन्होंने हमारी संस्कृति, सभ्यता और स्वाधीनता की रक्षा में इतना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
जनजातीय गौरव दिवस मनाने का मूल उद्देश्य ही इन नायकों की वीर गाथाओं को देश, समाज के सामने लाना है और युवा पीढ़ी को इनके योगदान, इनके कार्यों व इनके बलिदान से परिचित कराना है। इसी उद्देश्य के साथ इस वर्ष भी जनजातीय गौरव दिवस मनाया जा रहा है और हम इन नायकों को याद करते हुए इनके संघर्ष, बलिदान को सम्मान और पहचान देने का कार्य कर रहे हैं जो इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य है। स्वाधीनता संग्राम 1857 के पूर्व ही वनवासी जनजातीय नायकों ने अंग्रेजी हुकूमत का प्रतिकार करना प्रारंभ कर दिया था। इन जनजातीय भाइयों ने ब्रिटिश सत्ता और अन्य शोषकों के अन्याय व अत्याचार का पुरजोर विरोध किया। अनेक शताब्दियों तक इन्हें वनों से अलग कर नियंत्रित करने के प्रयास किए गए लेकिन इन्होंने अपनी संस्कृति, सभ्यता व विरासत को सदैव कायम रखा। इन जनजातीय नायकों ने अपने-अपने क्षेत्रों में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध आंदोलन चलाए। अपनी भूमि पर अतिक्रमण, जमीन से बेदखली, पारंपरिक सामाजिक व कानूनी अधिकार व रीति-रिवाजों के संरक्षण के लिए इन्होंने बगावत की। देश के विभिन्न भागों में विभिन्न जनजातियों का रोष, प्रतिरोध भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का अभिन्न अंग था। इतिहास गवाह है कि इन्होंने कभी लालच या स्वार्थ से वशीभूत होकर अपने देश की अस्मिता के साथ विश्वासघात नहीं किया। इन्होंने अपनी भूमि, अपनी प्रकृति, अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए हथियार उठाए और भारत की संस्कृति और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया।
बिरसा मुंडा जिनके जन्मदिवस पर जनजाति गौरव दिवस मनाने की घोषणा प्रधानमंत्री मोदी ने की थी, जनजातीय समाज में भगवान का मान रखते हैं। बिरसा मुंडा ने 25 वर्ष से भी कम उम्र में देश के लिए अपना बलिदान दे दिया। ईसाइयों द्वारा संचालित एक स्कूल में पढ़ने के दौरान उन्हें अंग्रेजों की जनजाति समूह के धर्मांतरण की साजिश का पता चला और इसके पश्चात उन्होंने अपने समुदाय को एकजुट किया। समुदाय को एकजुट कर ये अंग्रेजों के अत्याचारों, उनकी नीतियों के खिलाफ संघर्ष में कूद पड़े। ब्रिटिश सरकार से जमीन छुड़ाने के लिए उन्होंने नारा दिया था कि 'अबुआ दिशुम अबुआ राज' अर्थात हमारा देश हमारा राज। उन्हें धरती बाबा की उपाधि लोगों द्वारा दी गई। आज भी जनजातीय समुदाय उन्हें भगवान बिरसा के रूप में जानते हैं, मानते हैं।
मध्य प्रदेश में ऐसे कई प्रमुख जनजातीय नायक हुए जिन्होंने स्वाधीनता के यज्ञ में अपने प्राणों की बाजी लगा दी उनमें से एक है भीमा नायक। निमाड़ के बड़वानी के पंच मोहली गांव में रहने वाले भीमा नायक ने अंग्रेजों के खिलाफ भीलों की क्रांति का नेतृत्व सन 1840 से 1864 तक किया। उन्होंने 1857 के आंदोलन में अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दिया। उनकी मां सुरसी ने भी अंग्रेजों के खिलाफ इस मुक्ति मोर्चा में एक क्रांतिकारी टोली का नेतृत्व किया। अंत में अंग्रेजों की यातनाओं के कारण सूरसी ने जेल में ही प्राणों का बलिदान दे दिया। अंग्रेज सरकार द्वारा भीमा नायक के खिलाफ दोष सिद्ध हो जाने पर उन्हें पोर्ट ब्लेयर व निकोबार में रखा और वहीं पोर्ट ब्लेयर में उनकी मृत्यु हुई।
मध्य प्रदेश के ही वीर टंट्या भील ने भी अपना सर्वस्व मातृभूमि के चरणों में अर्पित कर दिया। टंट्या भील का जन्म मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में 1842 में हुआ। इन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ स्वाधीनता संग्राम में भील जनजाति का नेतृत्व किया। उनकी गतिविधियों को देखते हुए अंग्रेजों ने उन्हें इंडियन रॉबिनहुड का नाम दिया। टंट्या भील अत्यंत वीर और साहसी थे। उनके साहस से प्रभावित होकर तात्या टोपे ने उन्हें गोरिल्ला युद्ध में पारंगत बनाया। महज 16 साल की उम्र में वे क्रांतिकारी हो गए। जहां भी लोग उन्हें याद करते थे वे वहां पहुंच जाते थे। उन्होंने लोगों को ना केवल अंग्रेजों के अत्याचारों से मुक्त कराया बल्कि कमजोर व शोषित लोगों को सेठ साहूकारों के चंगुल से भी मुक्ति दिलाई। उन्होंने अंग्रेजों की शोषण नीति के विरुद्ध आवाज उठाई और आदिवासियों के लिए मसीहा बनकर उभरे। अपने ही लोगों के विश्वासघात के कारण वे अंग्रेजों की पकड़ में आ गए और उन्हें फांसी की सजा दी गई।
जबलपुर के राजा शंकर शाह व उनके पुत्र रघुनाथ शाह का स्वतंत्रता संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह गोंड राजवंश के प्रतापी राजा थे। शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह ने स्वाधीनता संग्राम में जबलपुर क्षेत्र का नेतृत्व किया। इनकी राष्ट्रभक्ति पर लिखी भावपूर्ण कविता से आक्रोशित होकर राजा शंकर शाह, रघुनाथ शाह को अंग्रेजों ने तोप से उड़ा दिया। सीताराम कंवर और रघुनाथ सिंह मण्डलोई (भिलाला) भी जनजातीय नायक थे। इन्होंने 1857 के स्वाधीनता संग्राम में निमाड़ क्षेत्र से अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा लिया और अंग्रेजों से युद्ध करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। सीताराम कवर और रघुनाथ सिंह ने भील-भिलाला के 3000 क्रांतिकारियों का एक संगठन बनाकर अन्य लोगों को क्रांति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।
निमाड़ क्षेत्र के बड़वानी के निवासी ख्वाजा नायक ने अंग्रेजी राज की सत्ता को नकारते हुए अंग्रेजों की नौकरी का परित्याग किया और बड़वानी क्षेत्र में आकर स्वतंत्रता संग्राम की कमान संभाली। इन्होंने भीलो का नेतृत्व किया और 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के तत्कालीन विराम के बाद भी अपनी लड़ाई जारी रखी। लगातार अंग्रेजों से स्वाधीनता के लिए संघर्ष करते हुए फांसी के फंदे को हंसते-हंसते गले लगा लिया। देश के स्वाधीनता संघर्ष में प्राणों का उत्सर्ग करने वाले हमारे जनजातीय क्रांतिकारियों के त्याग और बलिदान को शत शत नमन।
(लेखिका, इंदिरा गांधी जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक में व्यवसायिक शिक्षा संकायाध्यक्ष हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी