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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
आज की पीढ़ी तेजी से न्यूरोप्लास्टिसिटी यानी पॉपकॉर्न ब्रेन सिंड्रोम के मकड़जाल में उलझती जा रही है। बच्चे या युवा ही नहीं बल्कि इंटरनेट और सोशल मीडिया के अत्यधिक उपयोग के प्रभाव से ग्रसित ज्यादातर लोग इन हालात से दो-चार हो रहे हैं। फोकस नाम की चीज खोती जा रही है, उसके स्थान पर मानसिक भटकाव जगह ले रहा है। होता यह है कि एक काम करने की सोचते हैं, उतनी देर में दूसरे काम पर ध्यान चला जाता है तो कुछ ही देर में तीसरे काम की सोचने लगते हैं। इसका बड़ा कारण इलेक्ट्रॉनिक गजेट्स और लैपटॉप के माध्यम से इंटरनेट की दुनिया को अत्यधिक समय देने का साइड इफेक्ट होने लगा है। टीवी पर बार-बार चैनल बदलना, एक गाने को पूरा होने से पहले ही दूसरे गाने को लगा देना, मस्तिष्क में एक ही समय कई चीजों का चलना, पॉपकॉर्न ब्रेन सिंड्रोम की निशानी है। चिकित्सकीय भाषा में कहा जाए तो यह एडीएचडी यानी अटेंशन डेफिसिट हाईपर एक्टिविटी डिसऑर्डर की स्थिति होती है। बिना सोचे-समझे रिएक्शन, तनाव, काम में फोकस नहीं कर पाना, डिप्रेशन में रहना आदि का कारण मोटे रूप से पॉपकॉर्न ब्रेन के रूप में देखा जा सकता है।
दरअसल, पॉपकॉर्न ब्रेन शब्द का उपयोग 2011 में वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में उस समय शोध कर रहे डेविड लेवी ने किया था। यह एक तरह से भ्रमित मानसिकता को लेकर कहा जा सकता है। जिस तरह पॉपकॉर्न ब्रेन का विस्तार होता जा रहा है यानी जिस तरह से अधिक से अधिक लोग इसके मकड़जाल में उलझते जा रहे हैं वह अपने आप में गंभीर होने के साथ अत्यधिक चिंतनीय है। एक-दो नहीं इन हालातों का पूरे समाज पर असर पड़ रहा है। आज दूध पीते बच्चे को भी मोबाइल थमाकर शांत रखने की प्रवृति आम होती जा रही है। उसके दुष्परिणाम सामने आने में देर नहीं लगेगी। बच्चे हाईपर होते जा रहे हैं। जब बच्चों में ही यह होने लगा है तो रात-दिन जिस तरह से सोशल मीडिया प्लेटफार्म में लगे रहते हैं उनकी क्या मनोदशा हो जाएगी यह किसी से छुपी हुई नहीं होनी चाहिए। मनोविश्लेषकों के अनुसार यह एक तरह की न्यूरोप्लास्टिसिटी है।
देखा जाए तो स्मार्टफोन, सोशल मीडिया और इंटरनेट पर परोसी जाने वाली सामग्री का सर्वाधिक दुष्प्रभाव सीधे हमारी मनोदशा पर पड़ता है। तकनीक का इस तरह का दुष्प्रभाव संभवतः इतिहास में पहले कभी नहीं रहा। आज हम हर समस्या का समाधान स्मार्टफोन और इंटरनेट को मानने लगे हैं। बच्चा रो रहा है या किसी बात के लिए जिद कर रहा है या चिड़चिड़ा हो रहा है तो माताएं या परिवार के सदस्य बच्चे को चुप कराने या मन बहलाने या उसे व्यस्त रखने के लिए मोबाइल फोन थमा देते हैं। जबकि मोबाइल के दुष्प्रभाव हमारे सामने आने लगे हैं। अमेरिका में पिछले दिनों हुए एक सर्वे में सामने आया कि मोबाइल फोन, टेबलेट, वीडियो गेम या अन्य इस तरह के साधन के उपयोग से गुस्सैल होते जा रहे हैं। मारधाड़, हमेशा गुस्से में रहने, तनाव में रहने और जिद्दी होना आज आम होता जा रहा है। दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में हुए एक अध्ययन में भी साफ हो गया है कि आज गेमिंग, सोशल मीडिया और ओटीटी प्लेटफार्म के आदी होते जा रहे हैं। इसका परिणाम यह होता जा रहा है कि समाज संवेदनहीन होता जा रहा है। हमेशा तनाव, डिप्रेशन, आक्रामकता, गुस्सैल, बदले की भावना आदि आम है। ऐसे में मनोविज्ञानियों के सामने नई चुनौती आ जाती है। यह असर कमोबेश समान रूप से देखा जा रहा है। यह कोई हमारे देश की समस्या हो, ऐसा भी नहीं हैं अपितु दुनिया के लगभग सभी देशों में हो रहा है।
कोई दो राय नहीं कि विकास समाज की आवश्यकता है। स्मार्टफोन व इंटरनेट की दुनिया का अपना महत्व है। पर इनके सामने आ रहे दुष्प्रभावों को समझना होगा। पॉपकॉर्न ब्रेन को लेकर मनोविज्ञानी और चिकित्सक दोनों समान रूप से चिंतित हैं। सुझाया जा रहा है कि दिनचर्या को नियमित कर समय प्रबंधन को बेहतर बनाकर कुछ हद तक इस समस्या को कम किया जा सकता है। इसके साथ सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक गजेट्स पर आवश्यकता से अधिक समय नहीं दिया जाना जरूरी है। जितना कम तकनीक का उपयोग होगा और अनावश्यक रूप से इन पर समय नहीं दिया जाएगा तो एक तरह से ब्रेन डिसआर्डर की इस समस्या से या कहें कि पॉपकॉर्न ब्रेन की समस्या से छुटकारा मिल सकेगा। उलझनों के भ्रमजाल से बचा जा सकेगा। योग प्रक्रियाएं और नियमित दिनचर्या भी इस समस्या को एक हद तक दूर कर सकती है। इसलिए पॉपकॉर्न ब्रेन सिंड्रोम की गंभीरता और उसके दुष्परिणामों का समय रहते समाधान तलाशना होगा।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश