पुरस्कार और प्रशस्ति का सामाजिक महत्व
हृदयनारायण दीक्षित प्रशस्ति और सम्मान स्वाभाविक इच्छा हैं। यश अभिलाषा स्वाभाविक ही है। यश स्मृति आनन्दित करती है। जीवन में अपमान और अपयश भी होते हैं लेकिन अपयश के प्रमाण पत्र या स्मृति ग्रंथ नहीं होते। यश सम्मान के प्रमाण पत्र होते हैं। ऐसे पदधारक प
हृदयनारायण दीक्षित


हृदयनारायण दीक्षित

प्रशस्ति और सम्मान स्वाभाविक इच्छा हैं। यश अभिलाषा स्वाभाविक ही है। यश स्मृति आनन्दित करती है। जीवन में अपमान और अपयश भी होते हैं लेकिन अपयश के प्रमाण पत्र या स्मृति ग्रंथ नहीं होते। यश सम्मान के प्रमाण पत्र होते हैं। ऐसे पदधारक प्रशस्ति पत्र या पुरस्कार प्रमाण पत्र अपने कमरे में सजाते हैं। चाहते हैं कि आगंतुक उन्हें देखें, पढ़ें, हमको प्रतिष्ठित जानें। सम्मान पत्र प्रायः इतने भर के लिए ही उपयोगी हैं। कुछ प्रतिष्ठित सम्मानीय उन्हें लौटा कर एक दफा और यश याचक हो जाते हैं। ऐसा कई दफा हुआ है। पुरस्कार, प्रशस्ति या सम्मान पत्र लोकहित के प्रेरक हैं।

सर्जक पुरस्कार के लिए ही सृजन नहीं करते। वे अपनी मस्ती और अनुभूति में सृजन करते हैं। सम्बन्धित संस्थाएँ या राजव्यवस्थाएँ उन्हें पुरस्कृत करती हैं। बेशक खेल आदि के प्रतियोगी पुरस्कार या मेडल को ध्यान में रखकर भी तैयारी करते हैं लेकिन कवि, सर्जक या कला के अन्य क्षेत्रों में सक्रिय लोगों के मन में समाज को प्रेमपूर्ण बनाने की इच्छा होती है। ऐसी प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई पड़ती है। पुरस्कार और प्रशस्ति का सामाजिक महत्व है। ‘सर्वभूत हित‘ से जुड़े कर्म संस्कृति हैं। लोकमंगल सामूहिक अभिलाषा है। भारत का राष्ट्रभाव सांस्कृतिक है। लोकमंगल में सबको आश्वस्ति है। वैदिक परम्परा में स्वस्तिवाचन का महत्व है। इन्द्र से स्वस्ति की प्रार्थना है-स्वस्ति नो इन्द्रः। इन्द्र कल्याण करते हैं। इन्द्र सहित सारे देव कल्याण करते हैं। कल्याण करने वाले की प्रशस्ति स्वाभाविक है। यहाँ देव शब्द हटा दें तो समाज के सुख, स्वस्ति में कर्मरत मनुष्यों की प्रशंसा होनी चाहिए, होती रही है। लोकमंगल समाज की स्वाभाविक अभिलाषा है। सुख स्वस्ति मुद-मोद-प्रमोद देने वाले महानुभावों की प्रशस्ति सामाजिक कर्तव्य है। जल जीवन है। ऋग्वेद में जल की प्रशस्ति है, “जल में अमृत है, औषधियाँ हैं।“ ऋषि चाहते हैं कि देवों द्वारा भी जल की प्रशंसा हो। स्तुति है कि, “हे देवों जल की प्रशंसा के लिए उत्साही बनो।“ पृथ्वी माता है और आकाश पिता है। ऋषि स्तुति है कि, “दोनों प्रशस्ति सुनने के लिए हमारे पास आएँ।“

मुझे भारत का पद्मश्री सम्मान घोषित किया गया है। हजारों मित्र बुके लेकर आ रहे हैं। अपरिचित और परिचित मित्र फोन से बधाई दे रहे हैं। प्रशंसा सबको अच्छी लगती है। जान पड़ता है कि ऋग्वेद के देवता प्रशस्ति सुनते हैं लेकिन वे भी ‘द्यावा पृथ्वी‘ की प्रशंसा करते हैं। प्रशस्ति का क्षेत्र समाज है। प्रशंसा से मैं भी प्रसन्न होता हूँ। मेरे 5000 आलेख प्रकाशित हो चुके हैं और 2 दर्जन पुस्तकें भी। मेरा मुख्य कार्यक्षेत्र समाज है। मैंने अनजाने में ही अहैतुक आन्दोलन संगठित किए थे। संवेदनशीलता प्रेरित करती थी। प्रशंसा से उत्साह बढ़ता था। कवि होने की क्षमता होती तो विक्षुब्ध काव्य सृजन होता। मैं लिख सकता था, सो लिखा, लिखता रहा। जो किया सो लिखा और जो लिखा सो कर गुजरा। फिर राजनैतिक दलतन्त्र का भाग बना। राजनैतिक कार्यकर्ता के पुरस्कार दलतन्त्र की कोख से आते हैं। जनता ने तरुणाई में ही पुरस्कृत किया। मैं निर्दलीय विधायक चुना गया।

दलतन्त्र में पुरस्कार और तिरस्कार साथ-साथ चलते हैं लेकिन स्तम्भकारिता के चलते अनेक सरकारी-गैरसरकारी प्रशस्ति पत्र, पुरस्कार मिले। मैंने भी कुछ पुरस्कारों के प्रमाणपत्र दीवार में टांग रखे हैं। लेकिन इधर कुछ वर्षों से यह काम बंद है। ऐसे अवसरों के चित्र भी हैं। एक युवा पत्रकार ने मेरे लिखे पर पीएचडी भी की। इस प्रशस्ति ने मुझे आत्ममुग्ध किया था लेकिन अब दीवार पर टंगे ऐसे चित्र उल्लास नहीं देते। कभी-कभी लगता है कि इन चित्रों में मैं स्वयं दीवार पर टंगा हूँ। व्यतीत। चुका हुआ। दिनांक सहित होकर भी दिनांक रहित। प्रशस्ति निःस्सन्देह प्रेरक है। यह आत्मनिरीक्षण का भी अवसर होती हैं। व्यक्ति की प्रतिष्ठा उसके अपने कर्म का ही परिणाम नहीं होती। समाज के आदर्श और परम्परा व्यक्ति पर प्रभाव डालते हैं। सूर्य चन्द्र भी प्रसाद देते हैं। ऐसे सैकड़ों कारक तत्व हैं। मुझे घोषित सम्मान व्यक्तिगत प्रयत्नों का परिणाम नहीं है।

सौभाग्यशाली अपने जीवनकाल में ही यश और प्रशंसा पाते हैं लेकिन अनेक महानुभाव जीवनकाल में प्रशंसा का सुख नहीं पाते। जीवन के बाद उन पर काव्य रचे जाते हैं, वे इतिहास का उल्लेखनीय भाग बनते हैं। तुलसी, वाल्मीकि आदि सर्जक जीवन न रहने के बाद यशस्वी हुए। सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला‘ प्रशंसा का सुख नहीं पा सके। मृत्यु के बाद वे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के कवि जाने गए। मरणोपरांत सम्मान की भी परम्परा है। यहाँ प्रश्न उठता है कि हमारा समाज अपने समकालीन महानुभावों की गतिविधि का शिव तत्व देर में क्यों पहचानता है? लगता है कि प्रशस्ति में समाज का अपना स्वार्थ होता है। सर्जक प्रायः परिवर्तनकामी होते हैं। वे समाज के बड़े और शक्तिशाली हिस्से के निहित स्वार्थ निर्वस्त्र करते हैं। शक्तिशाली वर्ग उन्हें मान्यता नहीं देता। समय के साथ सामाजिक परिवर्तन आते हैं। सर्जक के कथन सही सिद्ध होते हैं। समाज उनकी प्रशस्ति करता है। गतिशील समाज प्रेरकों की गतिविधि की प्रशंसा करते हैं लेकिन बहुधा ऐसा नहीं होता।

राजनीति में प्रशस्ति का चलन व्यापक है। हम राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में सम्मान कराने के लिए लम्बी यात्राएँ करते हैं। प्रशस्ति सुनते हैं, मुग्ध होते हैं। लेकिन जानता हूँ कि राजनैतिक कार्यकर्ता की प्रशस्ति अल्पकालिक होती है। पद गया तो प्रशस्ति भी गई। मंच, माला, माइक की स्मृतियाँ बचती हैं। सम्मान पत्र दीवार की जगह ही छेंकते हैं तो भी वास्तविक प्रशंसा की उपयोगिता है। वास्तविक प्रशंसा से समाज में सत्य, शिव और सुन्दर बढ़ता है। परिवार के भीतर भी ऐसी प्रशंसा का महत्व है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में, “पत्नी की प्रशंसा‘ को सुन्दर बताया गया है। यहाँ पुत्र पिता का यश बढ़ाने वाला है।“

हरेक समाज अपनी सुगतिशीलता के लिए करणीय, अकरणीय और अनुकरणीय कार्यों की अलिखित सूची चलाता है। किए जाने योग्य स्वाभाविक कार्य ‘करणीय‘ होते हैं। समाज या व्यक्ति विरोधी कार्य अकरणीय कहे जाते हैं और ‘सर्वमंगल मांगल्ये‘ साधने वाले कार्य अनुकरणीय। अनुकरणीय प्रशंसनीय भी होते हैं। प्रशंसनीय कर्ता की प्रशंसा होती है। लोक उनका प्रशस्ति गायन करता है। समाज का सत्य, शिव और सुन्दर करणीय और अनुकरणीय कार्यों में ही खिलता है और बढ़ता है। गीता दर्शन ग्रन्थ है। गीता दर्शन के दूसरे अध्याय में विषादग्रस्त अर्जुन से श्रीकृष्ण ने कहा कि कर्तव्य पालन न करने से तुम अपना यश खो दोगे-‘कीर्ति च हित्वा‘। सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश तो मृत्यु से भी बड़ा है-‘अकीर्तिर्मरणात् अतिरिच्यते‘। यश सौभाग्य है। अपयश मृत्यु से भी भयंकर है। अध्यात्म विश्वासी चौकेंगे। श्रीकृष्ण ने यश को महत्वपूर्ण बताया है।

यशस्वी के लिए कर्तव्य-पालन जरूरी है। कर्तव्यपालन से यश बढ़ता है। आशावादी सक्रिय रहते हैं। विपरीत परिस्थितियों में निराशा भी आती है। जैसे आशावादी और यशस्वी के लिए कर्तव्य निर्वहन जरूरी है, वैसे ही निराशा के दौरान भी कर्तव्य पालन की महत्ता है। निराशा के भी कर्तव्य हैं। निराशी को सक्रिय कर्म से अलग नहीं हटना चाहिए। एक काम में मन न लगे तो दूसरा, दूसरे में भी चित्त केन्द्रीभूत न हो तो तीसरा। सतत् सक्रियता या रजस गुण का ऊर्ध्वगमन सत् में होता है। सत् का स्वभाव सतत् खिलता है। जीवन रहस्यपूर्ण है। हरेक काल या मुहूर्त की कार्यविधि का ज्ञान या विश्लेषण अभी भी अधूरा है लेकिन कर्तव्यपालन में आत्मसन्तोष मिलता ही है। सम्मान, यश, प्रशस्ति के अपने सामाजिक उपयोग हैं।

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश