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डॉ. आर.के. सिन्हा
सुप्रीम कोर्ट में पिछले दिनों याचिका दाखिल कर प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति को भी शामिल करने की मांग की गई है। यह बिल्कुल ठीक है कि ऐसा करने से देश की बड़ी आबादी को सस्ती और असरदार स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ आसानी से मिल सकेगा। साथ ही, पारंपरिक चिकित्सा को भी पर्याप्त बढ़ावा मिलेगा और वे पहले की भाँति फिर लोकप्रिय हो सकेंगी।
सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। हालांकि यह मामला ऐसा नहीं है, जिस पर सरकार को फैसला लेने में बहुत दिक्कत हो। पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियाँ जैसे आयुर्वेद, यूनानी, होम्योपैथी इत्यादि गरीब जनता के लिए कई मायनों में वरदान रही हैं और सरकारी संरक्षण प्राप्त होने पर और भी लोकप्रिय साबित हो सकती हैं। पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में आमतौर पर आधुनिक चिकित्सा की तुलना में उपचार की लागत काफी ज्यादा कम होती है। यह गरीब लोगों के लिए जो महंगे अस्पताल और दवाओं का खर्च वहन नहीं कर सकते, उनके लिए बहुत लाभकारी होती हैं।
ब्रिटेन के किंग चार्ल्स पिछले दिनों एक निजी यात्रा पर भारत आए हुए थे। उनके साथ उनकी पत्नी क्वीन कैमिला भी थीं। वे बेंगलुरु के पास एक आधुनिक आरोग्यशाला “होलिस्टिक हेल्थ सेंटर' में ठहरे। तीन दिनों की यात्रा के दौरान किंग चार्ल्स और क्वीन कैमिला ने योग, मेडिटेशन सेशन और योग थेरेपी का भरपूर आनंद उठाया। यानी सामान्य रोगियों से लेकर ब्रिटेन के किंग को भी अब समझ में आ गया है कि सेहतमंद रहने और स्मार्ट दिखने के लिए भारत के आधुनिक डॉक्टरों और परम्परागत चिकित्सा पद्धतियों से इलाज करवाना कहीं ज़्यादा सही रहेगा।
पारंपरिक चिकित्सक अक्सर ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में भी आसानी से उपलब्ध होते हैं, जहाँ आधुनिक चिकित्सा सुविधाएँ कुछ ही “मल्टी स्पेशलिटी “अस्पतालों तक ही सीमित होती हैं। अतः यह पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां ग्रामीण गरीबों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं और इनमें गरीब ग्रामीणों का अटूट विश्वास भी है। ज्यादातर पारंपरिक उपचार स्थानीय रूप से उपलब्ध जड़ी-बूटियों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर ही आधारित होते हैं, जिसकी लागत कम होती है। खास बात यह है कि ये पारंपरिक स्वास्थ्य पद्धतियाँ अक्सर शरीर और मन दोनों को एक साथ स्वस्थ रखने पर ध्यान केंद्रित करती हैं, जो आधुनिक चिकित्सा की तुलना में अधिक समग्र दृष्टिकोण है। यह जीवनशैली संबंधी बीमारियों की रोकथाम में अत्यंत कारगर मदद कर सकती हैं।
कुछ पारंपरिक उपचारों की प्रभावशीलता के लिए पर्याप्त वैज्ञानिक प्रमाणों का अभाव गिना दिया जाता है क्योंकि आधुनिक वैज्ञानिक रूप से स्वीकार्य प्रयोगों पर आधारित साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। सरकार को चाहिये कि आधुनिक प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिक शोध के आधार पर इनके कारगर परिणाम के साक्ष्य उपलब्ध करवाए। इससे रोगियों की सुरक्षा और उपचार की गुणवत्ता वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी सिद्ध और स्थापित हो सकेगी, नहीं तो पारम्परिक सिद्ध चिकित्सा पद्धतियों पर सवाल उठते ही रहेंगे। पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों से जुड़े लोगों और भारत सरकार के आयुष मंत्रालय को इस तरफ ध्यान देने की जरूरत है। इनमें गहन शोध होना ही चाहिए। यह भी मानना होगा कि पारंपरिक चिकित्सा व्यवसाय का नियमन और गुणवत्ता नियंत्रण अक्सर अपर्याप्त होता है। सरकार को इस तरफ भी देखना होगा।
इनके कुछ चिकित्सक ऐसे दावा करते हैं जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता है, जिससे रोगियों को भ्रमित किया जा सकता है और उनका स्वास्थ्य जोखिम में पड़ सकता है। अतः आयुष मंत्रालय को वैज्ञानिक अनुसंधान के आधार पर इन दावों की प्रमाणिकता या तो सिद्ध करनी होगी या फिर ख़ारिज करना होगा। खैर, ये पद्धतियाँ जनता के लिए वरदान तो हो ही सकती हैं, खासकर जब वे आधुनिक चिकित्सा के साथ एकीकृत हों और उचित नियमन और गुणवत्ता नियंत्रण के साथ संचालित हों। हालांकि, इन पद्धतियों की सीमाओं और चुनौतियों को भी स्वीकार करना और उनका समाधान करना महत्वपूर्ण है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह उपचार पद्धति भी वैज्ञानिक रूप से प्रमाणिक है।
भारत अपनी विविधता और समृद्ध इतिहास के लिए जाना जाता है, जिसमें अनेकों पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियाँ हज़ारों वर्षों से चली आ रही हैं। आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्धा, होमियोपैथी और अनेक अन्य प्रणालियाँ सदियों से भारतीय समाज के स्वास्थ्य और कल्याण का अभिन्न अंग रही हैं। आज, जब आधुनिक चिकित्सा पद्धति तेज़ी से आगे बढ़ रही है, तब भी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों का महत्व कम नहीं हुआ है, बल्कि यह और भी अधिक प्रासंगिक हो गया है। विश्व भर से प्रतिवर्ष हज़ारों अत्यंत पढ़े- लिखे और समृद्ध लोग आख़िर भारत आकर इन चिकित्सा पद्धतियों पर लाखों खर्च क्यों करते हैं। वे सभी पागल तो हैं नहीं। उन्हें निश्चित रूप से लाभ मिल रहा है तभी तो वे यहाँ आकर महीनों रहकर , लाखों खर्चकर स्वस्थ होकर वापस जा रहे हैं।
भारत में स्वास्थ्य सेवा का वितरण असमान है, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में। आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं तक पहुँच सीमित होने के कारण, पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियाँ स्वास्थ्य सेवा की पहुँच को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये पद्धतियाँ स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करती हैं और अक्सर कम खर्चीली होती हैं, जिससे वे आम लोगों के लिए अधिक सुलभ होती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग अक्सर इन पद्धतियों पर ही निर्भर रहते हैं क्योंकि ये उनके सांस्कृतिक परिवेश और आर्थिक स्थिति के अनुकूल हैं।
पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियाँ केवल बीमारियों के इलाज पर ही केंद्रित नहीं हैं बल्कि रोगों की रोकथाम पर भी जोर देती हैं। आयुर्वेद और योग जैसे पद्धतियाँ जीवनशैली में बदलाव, आहार और व्यायाम के माध्यम से स्वस्थ जीवन को बढ़ावा देने पर केंद्रित हैं, जिससे कई गंभीर बीमारियों से बचा जा सकता है। ये पद्धतियाँ शरीर और मन के बीच संबंध को समझती हैं और समग्र स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करती हैं।
पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियाँ प्रकृति से प्राप्त जड़ी-बूटियों और अन्य प्राकृतिक उपचारों का व्यापक उपयोग करती हैं। ये उपचार अक्सर कम साइड इफ़ेक्ट वाले होते हैं और आधुनिक दवाओं की तुलना में शरीर पर कम हानिकारक प्रभाव डालते हैं। भारत की जैव विविधता ने सदियों से पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों को पोषित किया है और इन पद्धतियों को अद्वितीय उपचार विकसित करने का अवसर प्रदान किया है।
ये चिकित्सा पद्धतियाँ भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ये पद्धतियाँ सदियों से भारतीय समाज के जीवन में अंतर्निहित हैं और लोगों के स्वास्थ्य के प्रति दृष्टिकोण को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इन पद्धतियों को अपनाने से न केवल शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार होता है बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक कल्याण में भी वृद्धि होती है। आयुर्वेद और योग जैसे पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों ने विश्व स्तर पर लोकप्रियता हासिल की है। इनकी मांग बढ़ने से भारत के लिए आर्थिक अवसर भी पैदा हुए हैं। पारंपरिक चिकित्सा से संबंधित उद्योगों का विकास भारत की अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने और रोजगार के अवसर पैदा करने में योगदान दे सकता है।
हालांकि, इन पद्धतियों को आधुनिक चिकित्सा के साथ एकीकृत करने की आवश्यकता है। यह महत्वपूर्ण है कि इन पद्धतियों का वैज्ञानिक सत्यापन किया जाए और उनकी प्रभावशीलता को सुनिश्चित किया जाए। साथ ही, इन पद्धतियों के व्यावसायीकरण को नियंत्रित करने और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए उचित विनियमन की भी आवश्यकता है। एक बात फिर दोहराना चाहता हूं कि आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी, आदि पद्धतियों से जुड़े विद्वानों को अपने अनुसंधान को और गहन करना होगा। वैज्ञानिक पद्धति से किए गए शोध इन पद्धतियों के लाभों, कार्यप्रणाली और सीमाओं को स्पष्ट कर सकते हैं। इससे न केवल इन पद्धतियों की विश्वसनीयता बढ़ेगी बल्कि अविश्वसनीय दावों से भी बचा जा सकेगा।
पारंपरिक पद्धतियों में पाए जाने वाले औषधीय पौधों और पदार्थों का आधुनिक विज्ञान द्वारा गहन अध्ययन किया जा सकता है। इससे नई दवाओं और उपचारों का विकास संभव हो सकता है, जो कई बीमारियों के लिए प्रभावी इलाज मुहैया करा सकते हैं। बेशक, पारंपरिक औषधियों की सुरक्षा और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए कठोर शोध आवश्यक है। पारंपरिक पद्धतियाँ अक्सर व्यक्ति-विशिष्ट उपचार पर जोर देती हैं। शोध से यह पता चल सकता है कि किस प्रकार के रोगियों के लिए कौन-सी पद्धति अधिक प्रभावी है और व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुसार उपचार को कैसे अनुकूलित किया जा सकता है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश